Thursday, August 20, 2009

अकाल, बाढ़, सुखाड़, बेकारी और गरीबी प्राकृतिक नही, मानव-निर्मित आपदा व व्यवस्थाजनित विभीषिका है. इन्हें पैदा करने वाली व्यवस्था को बदलना होगा

इस वर्ष पुरा देश अकाल की चपेट में आ गया है। मानसून ने दगा दिया नहीं कि हम पर अकाल का साया मंडराने लगा। आज़ादी के ६२ सालों बाद भी मानसून पर वही पुरानी निर्भरता बनी हुई है जो शर्म की बात है। सिर्फ एक इसी मामले में नहीं, जनता की सभी बुनियादी समस्यायों तथा ज्वलंत सवालों जैसे - शिक्षा, आवास, स्वास्थय और रोजगार आदि के बारे में भी यही बात की जा सकती है। तिस पर बिहार जैसे गरीब और पिछड़े राज्यों की गरीब जनता की बदहाल स्थिति की कल्पना आसानी से की जा सकती है। बिहार एक ऐसा राज्य है जहाँ की जनता पिछले छ: दशक से प्रत्यक वर्ष बाढ़ या तो सुखाड़ से तबाह और बरबाद होती आ रही है। प्रत्यक वर्ष लाखों गरीब और मजदूर लोग दाने-दाने के मोहताज़ हो जाते हैं। भारत के शासक-शोसक वर्गों से यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि देश के गरीब मेहनतकश अवाम के लिए आज तक उन्होंने क्या किया है। उल्टे, ये जनता को कभी भाग्य की घुट्टी पिलाते रहते हैं, जाति और धर्मं के बेकार के मसलों में उलझाये रखने की कोशिश में लगे रहते हैं, तो कभी झूठे वायदों और ऐसी बातों में उलझाए रखना चाहते हैं जिससे जनता शासक वर्गों द्वारा लागू की जा रही नीतियों पर सवाल न उठा सके। सबसे शर्मनाक बात यह है कि हमारे शासक आज़ादी के ६२ सालों बाद आज भी हमें मुर्ख बनने वाला वही पुराना पाठ बताते रहते हैं कि "बाढ़-सुखाड़ एक प्राकृतिक विभीषिका है" जिसका अर्थ यही निकलता है कि इसमे सरकार के लिए करने को कुछ नहीं है।
हद तो यह हो गई है कि इस बार के अकाल, सुखाड़ और पिछले दो दशक से साम्राज्यवादी वैश्वीकरण से प्रेरित नवउदारवादी नीतियों को लागू करने के फलस्वरूप पूरे विश्व में पैदा हुए आर्थिक संकट व मंदी के कारण पूरे देश में फैली बेकारी-भूखमरी को भी इसी तरह से धार्मिक और प्राकृतिक प्रकोप बताकर जनता को एक बार फिर से वेवकूफ बनाने की कोशिश की जा रही है। अकाल, भुखमरी, बेकारी और सुखाड़ आदि से इमानदारी से और सफलतापूर्वक निबटने में अपनी अक्षमता को और वर्तमान व्यवस्था के शोषणकारी चरित्र को जनता की नजर से छुपाने के लिए और आम जन को भरमाये रखने के लिए बिहार के हमारे नेताओं ने एक अजीबोगरीब बात और बहस शुरू कर दी है। इसमें सबसे आगे हैं कभी ब्राह्मणवाद और अन्धविश्वास से लड़ने की बड़ी-बड़ी बात करने वाले हमारे नेता लालू प्रसाद जी, जो इन दिनों खुलेआम बिहार की गरीब जनता के बीच अन्धविश्वास और भाग्यवाद फैलाने का काम कर रहे हैं। लालू जी कह रहे हैं कि बिहार में अकाल इसलिए आया है क्योंकि (मुख्यमंत्री) नीतिश कुमार जी ने सूर्यग्रहण के दिन बिस्कुट खाया था। आज उन्होंने कहा है कि हमें एक दिन उपवास रखना चाहिए और अनाज की बचत करनी चाहिए। लालू जी यह सलाह किसे दे रहे हैं? क्या उनको, उन गरीबों और मेहनतकश अर्ध बेकार मजदूरों को, जो प्रायः भरपेट खाना खाए ही सो जाते हैं? गरीबों के घर में अनाज ही नहीं है तो उनके उपवास का और बचत का क्या अर्थ हो सकता है? इसका तो सवाल ही पैदा नही होता है। तो क्या लालू जी उनकी बात कर रहे हैं जिनके पास अनाज और पैसा दोनों हैं? क्या आज उनकी ऐसी स्थिति हो गई है कि वे गरीबों को प्रभावित करने और आने वाले चुनाव में गरीबों की सहानुभूति लेने इतनी उलजलूल बात कर रहे हैं? क्या वे इतना भी नही जानते हैं कि जिनके पास अतिरिक्त अनाज है वे बाज़ार में उसे ले जाकर बेचेंगे और मुनाफा कमाएंगे न कि इससे गरीबों को फायदा होगा ! अनाज की जमाखोरी कराने वालों का तो नाम लेना भी उन्होंने गंवारा नहीं समझा ! जाहिर वे जनता को इन सबके लिए संघर्ष करने के लिए तो कह सकते नहीं, न ही वे सरकार से यह मांग ही कर सकते हैं कि जमाखोरों के पास जमा अनाज को तुंरत जब्त किया जाए। तब जनता को भाग्यवादी बनाने के अलावा इनके पास और रास्ता भी क्या है।
परंतु, इससे यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि अन्य नेतागण वैज्ञानिक सोच-विचार के स्वामी हैं। चाहे नीतिश जी हों या कोई और, वे सभी के सभी भाग्यवादी हैं। अगर वे अपने स्वयं के जीवन में भाग्यवादी न भी हों तब भी वे जनता को भाग्यवादी बनाने में पीछे नहीं हैं। सभी पूंजीवादी नेताओं को पता है कि अगर जनता भाग्य को छोड़ अपनी समस्याओं के असली कारण को पहचानने लगेगी, तो न तो यह राज रहेगा न इनका यह तख्तोताज रहेगा!!!!
वैसे यह बात पूरी तरह सच है कि भाग्यवाद फैलाना अकेले लालू जी की जरूरत नहीं है, पूरी की पूरी पूंजीवादी व्यवस्था इसी में लगी हुई है। जिस तरह से और जितनी मात्र में पूंजीवादी व्यवस्था मानवद्रोही, आदमखोर और हत्यारिन बन चुकी है उसे देखते हुए कोई भी कह सकता है कि यह एकमात्र इसीलिए और तभी तक टिकी हुई है जबतक कि जनता की बहुसंख्या असली राजनितिक स्थिति के बारे में अनभिज्ञ है और जागरूक नही बनी है। जिस दिन जनता राजनितिक रूप से जागरूक हो जायेगी, उसी दिन इस व्यवस्था का ठीक उसी तरह सत्यानाश हो जायेगा जिस तरह खून चूसने वाली व्यस्वस्थायों का दुनिया में हर जगह हुआ है। और, यह बात सिर्फ हम जानते हैं सो बात भी नहीं है, उल्टे, हमारे शोषक-शासक भी इस बात को अच्छी तरह जानते है। तभी तो वे इस कोशिश में हर दम लगे हैं कि आम जनता को मूर्ख बनाकर रखा जाए चाहे जैसे भी हो। हालांकि यह भी सच है कि वे अंततः इसमे सफल नहीं होंगे और जनता एक-न-एक दिन अपने भाग्य का फैसला स्वयं करने निकल पड़ेगी।
आज की पूंजीवादी समाज-व्यवस्था न तो सभ्यता के विकास में सहायक है और न ही वह संस्कृति और वैज्ञानिक सोच विकसित करने में ही सक्षम है। उल्टे इन सबके विकास में यह आज रोड़ा बना हुआ है। पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था के सारे अंतर्विरोध आज भयंकर रूप से काम कर रहे हैं। इसकी अतार्किकतायें आज समग्र रूप में प्रकट हो चुकी हैं। इसके बाह्य रूप (तथाकथित जनतंत्र) और इसके अन्तर्य (एकाधिकार और स्वतंत्रता विरोधी चरित्र) के बीच का अंतर्विरोध बिल्कुल खुले में आ चुका है। कंगाली और दारिद्रय के महासमुद्र में अखंड-अंतहीन ऐश्वर्य और आधिक्य के छोटे-छोटे टापू --- यही आज की सर्वत्र रूप से पायी जाने वाली सर्वजनीन सच्चाई बन गई है। परंतु, इन सबकी चेतना व्यापक जनता खासकर मजदूर वर्ग और मेहनतकश लोगों के बीच अभी तक नहीं पहुँची है। दूसरे, एक तरफ विश्वव्यापी आर्थिक संकट की मार है तो दूसरी तरफ अकाल का दानव जनता के समक्ष आ खडा हुआ है। बड़े पैमाने हुई बेकारी से लोगों का जीवन अत्यन्त ही कठिन हो गया है। आम जनों के बीच अपने भविष्य को लेकर गहरी निराशा व्याप्त हो गई है। सही राजनितिक चेतना में कमी की वजह से उनकी परेशानियों के लिए असली रूप में जिम्मेवार पूंजीवादी व्यवस्था उनकी नजर और कल्पना से बहार है। आम लोगों को अपने पूर्व जीवन के पाप तो दिखाई पड़ते हैं, जिन्हें वे आज के अपने दुखों के लिए जिम्मेवार मानते हैं, किंतु उन्हें आज की पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा किए जा रहे पाप नजर नहीं आ रहे हैं। वे आज भी भाग्यवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद और दुनिया भर के अंधविश्वासों में पड़े हुए हैं। आज की पूंजीवादी व्यवस्था के लिए यह एक वरदान से कम नहीं।
इसके अतिरिक्त पूंजीवाद 'जनतंत्र' के जिस राजनितिक खोल में काम करता है, वह भी जनता को भ्रम में डाले रहता है, वह उजरत गुलामी को आज़ादी के उपरी अहसास से ढंके रहता है। सरकार चुनने में जनता के वोट की 'अहमियत' से भी आज़ादी और स्वतंत्रता का अहसास होता है। यह एक हद तक सही भी है। गुलाम समाज या सामंती समाज की तुलना में यह व्यवस्था सचमुच ही आज़ादी प्रदान करती है। परंतु, समझने की बात यह है कि यह आज़ादी हमेशा कटी-छंटी और आधी-अधूरी होती है, क्योंकि 'जनतंत्र' के परदे के पीछे पूंजी की सर्वशक्तिमत्ता काम कराती है और पूंजी की ताकत ही मुख्या चीज़ होती है। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि स्वयं 'ख़ुद से सरकार चुनने वाली' गरीब जनता को यह अहसास होता है कि इस समाज में मानों कोई अदृश्य शक्ति है जो उनके पक्ष में नहीं है, और, जो कुछ दूसरे लोगों को अमीर बनाए हुए है। परदे के पीछे से काम करने वाली पूंजी कि सर्वशक्तिमत्ता ही वह अदृश्य शक्ति है जो हमारे समाज में वास्तविक रूप से राज करती है। पूंजीवादी कार्यपद्धति के ज्ञान का अभाव इस विश्वास को और पुष्ट बनाता है कि जनता की परेशानियों के पीछे जरूर कोई अलौकिक अदृश्य शक्ति जो उनके जीवन पर राज करती है। आदमी को अज्ञान उसे भाग्यवादी बनाता है। परंतु, इस अज्ञानता की भी एक सीमा है। यह हमेशा और अनवरत बने रहने वाली चीज नहीं है। स्वयं पूंजीवादी शोषण जनता को जागरूक करेगी, जागरूक बना रही है। पूंजीवाद जनता की तकलीफें बढ़ा रहा है, तो साथ में यह आम लोगों को जगा भी रहा है, पूंजीवाद के विरूद्व उन्हें स्वतः रूप से संगठित भी कर रहा है। यह कहावत सच है कि जब दर्द हद से ज्यादा बढ़ जाता है तो दवा बन जाता है। पूंजीवादी व्यवस्था के साथ यही कहावत चरितार्थ हो रही है।

Saturday, August 15, 2009

"ऐसी आज़ादी का हमारे लिए आख़िर क्या मतलब है?" --- एक मजदूर द्वारा प्रेषित ब्लॉग

मजदूरों -मेहनतकशों के लिए इस आज़ादी का आख़िर क्या अर्थ है? हम मजदूर तो उजरती गुलाम हैं फिर आज़ादी कैसी, स्वतंत्रता कैसी? हमें १५ अगस्त १९४७ को अंग्रेजों से मुक्ति मिली यह खुशी की बात है, परंतु, हमें और हमारे देश को साम्राज्यवाद से मुक्ति कहाँ मिली? आज़ादी के बाद भी हमारा देश साम्राज्यवाद के चंगुल से मुक्त नहीं हुआ है यह सच है।जहाँ तक हमारी बात है, हम जिस आजाद देश में रह रहे हैं वह एक पूंजीवादी जनतांत्रिक देश है। इसका अर्थ यह है कि हमारे देश की आर्थिक व्यवस्था पूंजीवादी है। पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था के लिए यह जरूरी है कि समाज में एक ऐसा तबका मौजूद हो जो जीवनयापन के अपने साधनों-संसाधनों से पूरी तरह अलग/वंचित हो गए हो और एकमात्र अपनी श्रम शक्ति को बेचकर ही जिन्दा रह सकता हो। दूसरे शब्दों में, पूंजीवाद में सर्वहारा वर्ग की मौजूदगी एक पूर्वशर्त है जिसके बिना पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था चल ही नहीं सकती है। दूसरी तरफ, एक मजदूर जो एकमात्र अपनी श्रम शक्ति बेचकर ही स्वयं अपने और अपने परिवार का पेट भर सकता है, वह अपनी श्रम शक्ति एक पूंजीपति को बेचता है। वह मजदूर निश्चय ही इस मायने में स्वतंत्र है कि वह चाहे तो अपनी श्रम शक्ति न बेचे, इसके लिए कोई इसे मजबूर नहीं करता है, या, इस पूंजीपति को नहीं उस पूंजीपति को बेचे। याने, उसे जहाँ मन करे अपने को बेचे। ऊपर से देखने पर यह देखने में स्वतंत्रता और आज़ादी के रूप में हमें दिखाई दित है। परंतु, एक सर्वहारा मजदूर, जिसके पास जीने का और कोई दूसरा साधन नहीं होता है, अगर अपना श्रम नहीं बेचेगा तो उसे और उसके परिवार को भूखा रहना पड़ेगा। वह सिर्फ कहने को ही आजाद है, असल में तो वह गुलाम है। जब वह किसी पूंजीपति से अपनी श्रम शक्ति के मूल्य को लेकर मोल-भाव करता है, तो पूंजीपतिवर्ग को मजदूर वर्ग की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का पूरा ज्ञान होता है। जाहिर है अगर किसी समाज में गरीबों और मजबूरों की संख्या बढ़ती है और ज्यादा से ज्यादा लोगों का पूंजीवादी सम्पतिहरण हो रहा हो और दूसरे लोग भी सर्वहारा की पांतों में शामिल हो रहे हों, तो श्रम आधिक्य की स्थिति बनती है, जिससे श्रम बाज़ार में श्रम की कीमत में और भी ह्रास होता है। एक ही काम के लिए कई सौ हज़ार मजदूर पंक्ति में खड़े हों तो पूंजीपति वर्ग के लिए मजदूरों के शोषण के और भी बेहतर मौके मिलने लगते हैं। इसीलिए तो कहा जाता है कि पूंजीवादी विकास, याने, पूंजीवादी संचय और केन्द्रीकरण के नियम प्रतिदिन निम्न पूंजीपति वर्ग के एक हिस्से का सम्पतिहरण करता रहते है। इन सबके परिणामस्वरूप समाज के एक छोर पर मुठ्ठी भर लोगों (पूंजीपतियों) के पास वैभव का अम्बार पैदा हो रहा है, तो वही दूसरी तरफ, गरीबों-मजलूमों की एक बड़ी फौज खड़ी होती जा रही है। क्या ऐसी स्थिति में यह आज़ादी हम जैसे लोगों - मजदूरों व मेहनतकशों के लिए वास्तव में कोई मायने रखता है? (edited to some extent by the editor of this blog)

Wednesday, August 12, 2009

वर्त्तमान जानलेवा महंगाई के खिलाफ आवाज उठाना होगा, इसे पैदा करने वाली व्यवस्था को समझना होगा.

आज इससे किसी को इनकार नहीं हो सकता है कि वर्त्तमान महंगाई से खासकर असंगठित क्षेत्र के मजदूरों, मेहनतकश गरीब जनता और निम्न-मध्य वर्ग के लोगों की जिंदगियां लहूलुहान हो गई हैं। उस पर अतिअल्पवृष्टि के कारण देश में छाये सुखाड़जनित अकाल ने महंगाई से त्रस्त आम जनों की स्थिति को अत्यधिक रूप से भयावह बना दिया है। शोषण, लूट और भ्रस्टाचार की कमाई पर मौज मस्ती करने वाले लोगों और थैलीशाहों - नौकरशाहों आदि को भला महंगाई की मार का क्या पता होगा? असंगठित क्षेत्र के कामगारों और बेरोजगारों से जाकर कोई पूछे तो पता चलेगा कि उनकी तो पूरी जिंदगी ही लहूलुहान हो गई है। ऐसी स्थिति में इसके मूल कारणों पर विचार करना जरूरी है।
हम अगर गौर करें तो पाएंगे कि वर्त्तमान महंगाई का सीधा रिश्ता पूंजीवादी व्यवस्था और इसके तहत चलने वाली सरकारों की नवउदारवादी साम्राज्यपरस्त नीतियों से है। चाहे बीजेपीनीत सरकार हो या फिर कांग्रेसनीत सरकार हो सभी ने वैश्वीकरण, नवउदारीकरण व निजीकरण की नीतियों को आगे बढाया है। इसके फलस्वरूप पिछले दो दशकों के दौरान कृषि में निवेश लगातार घटा, कृषि में लगाने वाले सामानों (खाद, बीज, कीटनाशक आदि) पर से सब्सिडी हटता गया, बाज़ार की शक्तियों को मुक्त किया गया और बड़ी कंपनियों को कृषि में आमंत्रित किया गया। इसी के साथ विश्व व्यापार संगठन के प्राबधानों को मानते हुए सरकारी नीतियों को इस तरह बनाया गया जिससे कृषि उत्पादों के दामों को अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार से जोड़ने का रास्ता प्रशस्त हुआ। देशी कृषि उत्पादों के दाम धीरे-धीरे अंतर्राष्ट्रीय दाम के साथ जुड़ते गए। इसके फलस्वरूप कृषि उत्पादों के दामों में जबर्दस्त उतार-चढाव आने लगा। इस तरह कृषि विश्व बाज़ार के संकटों से जुड़ती चली गई। इस परिदृश्य का सबसे खतरनाक पहलू यह बना कि कृषि से जुड़ी मेहनतकश आबादी की स्थिति बिगड़ने लगी और कृषि विकास दर गिरने लगा। यह परिदृश्य पिछले कई वर्षों से बना हुआ है। स्थिति ऐसी बना दी गई जिसमें कृषि में विविधिकरण सरकार का मुख्य मुद्दा बन गया। खाद्य सुरक्षा का प्रश्न गौण होता गया। सरकार शुरू से यह तर्क देने की कोशिश करती रही है कि विविधिकरण से किसान खुशहाल होंगे और यह कहा गया कि अनाज की कमी होने पर अनाज विदेशों से मांगा लिया जाएगा। हम जानते हैं कि पिछले वर्षों के दौरान विश्व बाज़ार में खाद्यानों के दामों में बेतहाशा वृद्धि हुई। इससे भारत में भी खाद्यानों के दामों पर असर पड़ा। आज जब महंगाई के कारण आबादी की एक बड़ी संख्या खाद्य असुरक्षा से पीड़ित है, सरकार जनता को झांसा देने के लिए खाद्य सुरक्षा कानून लाने की बात कर रही है लेकिन जिसके लिए कोई वित्तीय प्राबधान नहीं किया गया है। ज्ञातव्य हो कि अगर यह कानून लागू भी हो जाए, तब भी आबादी की एक छोटी संख्या ही इससे लाभान्वित होगी। वैसे हम सभी जानते हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था में कानून लागू होने से ज्यादा आम अवाम को झांसा देने के काम ज्यादा आता है।

JUST THINK HOW CAPITALISM OF TODAY WORKS FROM BEHIND THE SCENE!

An article in Sunday's New York Times on the behind-the-scenes dealings between Henry Paulson, treasury secretary under President George W. Bush, and Goldman Sachs, the giant investment bank Paulson headed before joining the Bush administration, sheds a measure of light on the corrupt relationship between government officials and the banks (finance capital). One might be knowing that this involved the multi-trillion-dollar bailout of Wall Street.
The article is based on Paulson’s official schedules for 2007 and 2008.It focuses on mid-September of 2008, the high point of the crisis, when the government decided to allocate $85 billion to bail out the failing insurance and financing firm American International Group (AIG). The article exposes how the rescue of AIG was a decision to use taxpayer funds to cover dollar for dollar the billions owed by the insurance firm to Wall Street banks that held credit default swap contracts with AIG. Credit default swaps is central to erecting the vast edifice of speculation. This is the secret how banks reap huge profits and reward their top executives and traders with multi-million-dollar bonuses and pay packages.
Credit default swap market are largely unregulated and banks and corporations purchase insurance against these default of bonds issued by other banks and companies. One should know that the AIG was by far the biggest seller of such swaps. If it goes bankrupt, its counterparties will have to stand to lose billions and go bankrupt themselves.This was precisely the position of major financial firms in September of 2008, when AIG was teetering on the brink of collapse. At this time Goldman, the biggest and the most profitable wall street investment houses, and Morgan Stanely both were such counterparties and “were in danger themselves of failing later in the week...” Goldman stood to lose $13 billion in credit default swaps and other derivative contracts with AIG. The Times article has documented documents the fact that "Paulson, who by law and ethics rules was prohibited from maintaining undue contact with his former bank, held dozens of telephone discussions with Blankfein on and around September 16, 2008, when Paulson and the Federal Reserve Board announced the bailout of AIG."
The Times writes that Paulson and his collaborators in orchestrating the bank bailout (that includes Federal Reserve Board Chairman Ben Bernanke and Timothy Geithner, then president of the Federal Reserve Bank of New York and now Obama’s treasury secretary) were well aware of the legal implications of Paulson’s role in rescuing Goldman with public funds. To provide themselves with a legal fig leaf, as the Times reports, Paulson obtained two ethics waivers on September 17, shortly before a conference call involving himself, Bernanke, Geithner and other bank regulators to discuss the financial crisis of Goldman, Merrill Lynch and Morgan Stanley. The waivers were issued by Paulson’s Treasury Department and the Bush White House counsel’s office.
The newspaper writes "prior to receiving any waivers, Paulson played a key role in decisions that disproportionately benefitted his former bank. In addition to covering Goldman’s bad debts with AIG, these included the elimination of Goldman rivals Bear Stearns and Lehman Brothers (and subsequently Merrill Lynch), allowing Goldman to legally convert from an investment bank to a commercial bank—giving it more access to federal financing—and a Security and Exchange Commission ruling barring investors from betting against Goldman stock by selling it short.
On the basis of such measures—and trillions of dollars in cash, virtually free loans, debt guarantees and other taxpayer subsidies— which have been continued and expanded by the Obama administration, major Wall Street banks have registered substantial profits this year and allocated massive, in some cases record, sums to provide their top executives and traders with seven and eight-figure compensation packages.
None has done better than Goldman, which recently reported a record second-quarter profit of $3.44 billion and is on track to award its employees a record $22 billion in bonuses and salaries this year. This is the moral, political and social ethics of the age dominated by capitalism and Imperialism where finance capital has clear sway in all matters.
Sunday’s Times article suggests that, in addition to legal and ethics violations, Paulson may have perjured himself in testimony last month before a committee of the House of Representatives. Challenged on possible conflicts of interest in his dealings with AIG and Goldman, the former treasury secretary told the committee, “I want you to know that I had no role whatsoever in any of the Fed’s decisions regarding payments to any of AIG’s creditors or counterparties.”
But the newspaper cites unnamed former government officials as saying, “Mr. Paulson played a major role in the AIG rescue discussions over that weekend [September 13-14, 2008] and it was well known among the participants that a loan to AIG would be used to pay Goldman and the insurer’s other trading partners.”
The newspaper omits mention of a further damning fact. Paulson, who, the Times notes, personally fired the CEO of AIG, appointed Edward M. Liddy as his replacement. According to Wikipedia, the man selected by Paulson to oversee the funneling of taxpayer cash from AIG to Goldman and other AIG creditors “was on the board of directors of Goldman from 2003 to 2008, when he resigned to become CEO of AIG. He was selected by Henry Paulson for both roles.” Liddy, who has since resigned his AIG post, owns more than 27,000 shares in Goldman Sachs worth over $3 million.
Reflecting the Times’ political support for Obama, the newspaper also fails to note that the current administration is well stocked at the highest levels with Goldman alumni and protégés of its former top executive Robert Rubin. These include, mentioning only two, the administrator of TARP funds, former Goldman Vice President Neil Kashkari, and Lawrence Summers, Obama’s top economic adviser. The article likewise fails to mention by name Geithner, a key organizer of the AIG bailout and current treasury secretary.
Paulson’s role in orchestrating the plundering of the Treasury to pay off the gambling debts of Goldman and, more generally, shield the financial aristocracy from the consequences of its speculative operations, is criminal in the full sense of the word. There is every basis for launching a criminal investigation, and aside from potential violations of law, the destructive social consequences for hundreds of millions of people in the US and around the world of his policies—which are being continued by Obama—are incalculable.
Paulson, however, is not an aberration. The multi-millionaire banker turned cabinet official is rather an embodiment of the domination of social and political life by a financial oligarchy, whose leading representatives partake in the revolving door between the corporate suite and the highest levels of the state. This Augean stable of reaction and corruption can be cleaned out only through the independent mobilization of the working class on the basis of a revolutionary socialist program.

JUST IMAGINE WHAT IS THE VALUE OF DEMOCARCY IN A SOCIETY WHERE FINANCIAL OLIGARCHY RULES THE ROOST!!

Based on the article by Barry Grey from w.s.w.s.

Monday, August 10, 2009

'जो कुछ बचा, मंहगाई मार गई'

गरीबों के मुंह से निवाला छीन लेने वाली मंहगाई ने आम लोगों का जीना मुश्किल कर दिया है। आख़िर क्यों बढ़ गई मंहगाई? कौन है इसके लिए जिम्मेवार? क्या congress party जिम्मेवार है? क्या BJP जिम्मेवार है? जनता सोच रही है अब किसे जिताया जाए? बीजेपी और कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, वाम दलों सहित सभी छोटी-बड़ी पार्टियों की सरकारों को देख लिया गया है। जहाँ तक आम मेहनतकश जनता और गरीब लोगों का सवाल है, उनमें रत्ती भर भी फर्क नहीं है। आज जब मंहगाई बढ़कर इतनी हो गई है कि खाते-पीते परिवारों के यहाँ से भी दाल और सब्जियां गायब होती जा रही हैं, तो पूंजीवादी पार्टियाँ भी मंहगाई पर चिंता जाहिर कर रही हैं। उन्हें डर है कि भूखी जनता सड़क पर न आ जाए, कहीं विधि -व्यवस्था न बिगड़ जाए और शासन पर जनता धावा न बोल दे! परंतु, जब वे स्वयं अपनी जाती हुई सत्ता को " झपटने" के लिए विधि-व्यवस्था बिगाड़ते हैं तो उन्हें इसकी कोई फिक्र नहीं होती है!! सवाल यह भी है कि जनता स्वयं क्या सोचती है।

Saturday, August 8, 2009

आत्मा और प्रकृति का प्रश्न

भाववाद और भौतिकवाद के ऐतिहासिक प्रस्तुतीकरण के लिए आत्मा और प्रकृति के प्रश्न पर विचार करना अति आवश्यक है। जहाँ तक आत्मा का सवाल है, हमें इस शब्द की व्युत्पति सम्बन्धी पचडों में पड़े बिना इसके व्यावहारिक-ऐतिहासिक अर्थ पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। आत्मा क्या है? धार्मिक दृष्टिकोण के अनुसार यह एक ऐसी विशिष्ट चीज है जो सभी जीवित जीवों में पायी जाती है और जो उनमें अलग से निवास करती है। माना जाता है मनुष्य की चिंतन क्रियायें और संवेदनाएं इसी जीवात्मा द्वारा की जाने वाली क्रियायें मानी जाती हैं। इस जीवात्मा का शरीर से अलग हो जाने का अर्थ मृत्यु होना माना जाता है। परन्तु, स्वयं आत्मा को अमर माना जाता है। आत्मा की कभी कोई मृत्यु नहीं होती है। सभी धर्मों में आत्मा के अमरत्व की कहानियों के पीछे भी यही, लगभग यही धारणा पायी जाती है। हमारे लिए इस पर विचार करना और यह समझना जरूरी है कि यह धारणा पैदा किस तरह हुई और भाववाद दर्शन में ऐसी अवधारणा का स्थान क्या है।
एंगेल्स लिखते हैं - " अतिप्राचीन काल से ही जब मनुष्य को स्वयं अपने शरीर की रचना के बारे में कोई जानकारी नहीं था, सपने में देखी प्रेत छायाओं के प्रभाव से यह विश्वास करने लगा था कि उसका चिंतन व उसकी संवेदना उसके शरीर कि क्रियायें नहीं, अपितु एक विशिष्ट जीवात्मा की क्रियायें हैं जो शरीर में निवास करती है और जो मृत्यु के समय शरीर का परित्याग कर देती है। और तभी से मनुष्य इस आत्मा और बाह्य जगत के साथ अपने सम्बन्ध पर विचार करने पर विवश होना पड़ा। .........................