पिछले विधानसभा चुनाव में बहुमत हासिल कर दोबारा सत्ता पर काबिज होने वाले मध्य प्रदेश के भाजपाई मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान और उनके प्रदेश की झोली में कुछ और तमगे आ गिरे हैं। एक गैर सरकारी संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक इस वर्ष मई के महीने के बाद से मध्य प्रदेश के कम से कम चार जिलों में छह वर्ष से कम उम्र के 450 बच्चों की कुपोषण से मौत हो गई है। राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण-तीन की रिपोर्ट के अनुसार म.प्र. में कुपोषण 54 प्रतिशत से बढ़कर 60 प्रतिशत हो गया है जिसका मतलब यह है कि मप्र के बच्चे भारत के सबसे कुपोषित बच्चे बन गए हैं। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। शिशु मृत्यु दर के मामले मे भी मध्य प्रदेश भारत का अव्वल राज्य है जहाँ ज़िन्दा पैदा होने वाले हर 1000 बच्चों में से 72 की पैदा होते ही मौत हो जाती है (नमूना पंजीकरण सर्वेक्षण 2007-08)। यह गौरव हासिल करने वाला म.प्र. अकेला राज्य नहीं है! राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली उसे कड़ी टक्कर दे रही है। वैसे तो पूरे देश के स्तर पर ''अतुलनीय भारत'' की यही दशा है। स्थिति कितनी भयावह है इसे स्पष्ट करने के लिए चन्द एक ऑंकड़े ही पर्याप्त होंगे। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत के पाँच वर्ष से कम उम्र के 38 फीसदी बच्चों की लम्बाई सामान्य से बहुत कम है, 15 फीसदी बच्चे अपनी लम्बाई के लिहाज से बहुत दुबले हैं, और 43 फीसदी (लगभग आधे) बच्चों का वजन सामान्य से बहुत कम है। पर्यावरणविद डा. वन्दना शिवा द्वारा हाल ही में जारी एक रिपोर्ट से पता चलता है कि आज देश के हर चौथे आदमी को भरपेट भोजन मयस्सर नहीं हो पा रहा है। कुछ ही साल पहले जारी अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक लगभग 77 प्रतिशत भारतीय 20 रुपया रोज से कम गुजारा करते हैं। उसके बाद से महँगाई जिस रफ्तार से बढ़ी है उसे देखते हुए सहज ही अन्दाजा लगा जा सकता है कि आज की स्थिति और भी भयानक हो चुकी होगी। एक तरफ सरकार मुद्रास्फीति की दर के ऋणात्मक हो जाने की बात कर रही है वहीं दूसरी तरफ पिछले 4-5 सालों में अधिकतर खाद्य पदार्थों की कीमतों में 50 से 100 प्रतिशत का इजाफा हो चुका है। जैसे-जैसे खेती में कारपोरेट सेक्टर की पैठ बढ़ती जा रही है और लोगों की आश्यकताओं के अनुरूप नहीं बल्कि बाज़ार को ध्यान में रखकर खेती करने का चलन बढ़ रहा है, वैसे-वैसे बुनियादी खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ती जा रही हैं और खाद्य असुरक्षा की स्थिति पैदा हो गयी है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि देश में अन्न की कमी है। अनियंत्रित, अवैज्ञानिक ढंग से खेती करने, किसानों को सरकारी मदद के कमोबेश पूर्ण अभाव और खेती को जुआ बना देने की तमाम कोशिशों के बावजूद विशेषज्ञों का मानना है कि हजारों टन अनाज गोदामों में पड़ा सड़ जाता है और चूहों द्वारा हज़म कर लिया जाता है। इसके अलावा बड़े पैमाने पर अनाज अवैध तरीकों से विदेशों में बेचा जाता है। एक तरफ खेती योग्य जमीन का दूसरे कामों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है तो दूसरी तरफ अन्न उगाने के बजाय किसानों को नगदी फसलें उगाने का प्रलोभन भी दिया जा रहा है। देश का एक बहुत बड़ा भूभाग पहले से ही सूखे से जूझ रहा था वहीं इस साल मानसून कम होने के कारण अन्न उत्पादन और भी कम होने की आशंका है। हमारी सुजलाम सुफलाम शस्य श्यामलम धरती अंग्रेज़ शासकों द्वारा निर्मित अकालों के बाद अब देशी हुक्मरानों द्वारा निर्मित अकाल जैसी स्थिति का सामना कर रही है। आज दुनिया में सबसे ज्यादा भूखे लोग भारत में रहते हैं। देश में लगभग साढ़े इक्कीस करोड़ लोगों को भरपेट भोजन नसीब नहीं हो रहा है। इसके अलावा नीचे की एक भारी आबादी ऐसी है जिसका पेट तो किसी न किसी प्रकार भर जाता है मगर उनके भोजन से पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता। यही वह आबादी है जो फैक्टरियों-कारखानों और खेतों में सबसे खराब परिस्थितियों में सबसे मेहनत वाले काम करती है और झुग्गी-बस्तियों में और कूड़े के ढेर और सड़कों-नालों के किनारे जिन्दगी बसर करती है। कहने की जरूरत नहीं कि भूख, कुपोषण, संक्रामक रोगों, अन्य बीमारियों और काम की अमानवीय स्थितियों के कारण और साथ ही दवा-इलाज के अभाव के कारण इस वर्ग के अधिकतर लोग समय से ही पहले ही दम तोड़ देते हैं। पर्याप्त पोषण की कमी के कारण भारत के लगभग 6 करोड़ बच्चों का वज़न सामान्य से कम है। सुनकर सदमा लग सकता है कि अफ्रीका के कई पिछड़े देशों की हालत भी यहाँ से बेहतर है! दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों की एक तिहाई संख्या भारतीय बच्चों की है। देश की 50 प्रतिशत महिलाओं और 80 प्रतिशत बच्चों में खून की कमी है। डा. वन्दना शिवा का कहना है कि आर्थिक सुधारों ने खाद्य सुरक्षा को अत्यधिक प्रभावित किया है। कारपोरेट खिलाड़ियों के प्रभाव वाली गैर वहनीय कृषि को सरकार बढ़ावा दे रही है जबकि इससे छोटे किसान तबाह हो रहे हैं। उनका कहना हे कि छोटे किसान बड़े-बड़े फार्मों की अपेक्षा अधिक अन्न की पैदावार करते हैं और यदि वे तबाह होते हैं तो वे भुखमरी की कगार पर आ जाएंगे और देश भी भूखा रहेगा। गाँवों में रहने वाली देश की भारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज तबाही की कगार पर खड़ा है। पूँजी के तर्क से समझा जा सकता है कि पूँजीवाद में छोटे किसानों की तबाही अनिवार्य है। उदारीकरण की नीतियों ने इसमें और तेजी ला दी है। वहीं दूसरी तरफ यह भी सच है कि खेती के सहारे गरीब किसान अपना निर्वाह नहीं कर सकता। जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों पर खेती करने वालों की संख्या करोड़ों में है जो कहने को जमीन के मालिक हैं लेकिन खेती से उनके परिवार का पेट तक नहीं भरता। छोटे-छोटे टुकड़ों के अलग-अलग मालिकों की संपत्ति होने के कारण योजनाबद्ध ढंग से कृषि कर पाना, सिंचाई, खाद, कीटनाशक आदि की व्यवस्था कर पाना और मशीनों का प्रयोग तथा वैज्ञानिक खेती कर पाना सम्भव नहीं रह जाता। हर किसान अपनी खेती के लिए स्वयं जिम्मेदार होता है और वह किसी समूह का अंग नहीं रह जाता। एक तरफ तो वह सरकार से कोई मदद प्राप्त नहीं कर पाता है, वहीं दूसरी तरफ प्राइवेट कम्पनियों के शोषण का शिकार होता है। खेती उसके लिए गले की हड्डी बन जाती है जिसे न तो वह निगल पाता है न उगल पाता है। इसकी तुलना समाजवादी रूस और चीन की सामूहिक और कम्यून खेती से करें तो आश्चर्यजनक अन्तर दिखायी पड़ता है। सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि विश्व स्तर पर हम एक मानव निर्मित अकाल की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं! हर गुजरते दिन के साथ स्थिति और गम्भीर होती जा रही है। देश की तरक्की की सारी मलाई अमीरों द्वारा चट कर ली जा रही है जबकि उत्पादन में सबसे अधिक योगदान करने वाली तीन-चौथाई मेहनतकश आबादी भूख, कुपोषण, और बीमारियों की शिकार बन रही है। ऐसे में जर्मन कवि बेर्टोल्ट ब्रेष्ट के इन शब्दों को याद करने की ज़रूरत है
गर थाली आपकी खाली है तो सोचना होगा कि खाना कैसे खाओगे ये आप पर है कि पलट दो सरकार को उल्टा जब तक कि खाली पेट नहीं भरता...
जयपुष्प
( "बिगुल" से साभार)
No comments:
Post a Comment