Saturday, August 8, 2009

आत्मा और प्रकृति का प्रश्न

भाववाद और भौतिकवाद के ऐतिहासिक प्रस्तुतीकरण के लिए आत्मा और प्रकृति के प्रश्न पर विचार करना अति आवश्यक है। जहाँ तक आत्मा का सवाल है, हमें इस शब्द की व्युत्पति सम्बन्धी पचडों में पड़े बिना इसके व्यावहारिक-ऐतिहासिक अर्थ पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। आत्मा क्या है? धार्मिक दृष्टिकोण के अनुसार यह एक ऐसी विशिष्ट चीज है जो सभी जीवित जीवों में पायी जाती है और जो उनमें अलग से निवास करती है। माना जाता है मनुष्य की चिंतन क्रियायें और संवेदनाएं इसी जीवात्मा द्वारा की जाने वाली क्रियायें मानी जाती हैं। इस जीवात्मा का शरीर से अलग हो जाने का अर्थ मृत्यु होना माना जाता है। परन्तु, स्वयं आत्मा को अमर माना जाता है। आत्मा की कभी कोई मृत्यु नहीं होती है। सभी धर्मों में आत्मा के अमरत्व की कहानियों के पीछे भी यही, लगभग यही धारणा पायी जाती है। हमारे लिए इस पर विचार करना और यह समझना जरूरी है कि यह धारणा पैदा किस तरह हुई और भाववाद दर्शन में ऐसी अवधारणा का स्थान क्या है।
एंगेल्स लिखते हैं - " अतिप्राचीन काल से ही जब मनुष्य को स्वयं अपने शरीर की रचना के बारे में कोई जानकारी नहीं था, सपने में देखी प्रेत छायाओं के प्रभाव से यह विश्वास करने लगा था कि उसका चिंतन व उसकी संवेदना उसके शरीर कि क्रियायें नहीं, अपितु एक विशिष्ट जीवात्मा की क्रियायें हैं जो शरीर में निवास करती है और जो मृत्यु के समय शरीर का परित्याग कर देती है। और तभी से मनुष्य इस आत्मा और बाह्य जगत के साथ अपने सम्बन्ध पर विचार करने पर विवश होना पड़ा। .........................

1 comment:

  1. एंगेल्स का यह वाला पूरा पैरा दिया जा सकता था।
    बहुत जरूरत है मानवजाति के इस अधिकतर अभिनव ज्ञान को आम बनाने की।

    अच्छा लगा।

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