Tuesday, October 27, 2009

"आज के सन्दर्भ में रूसी नवम्बर समाजवादी क्रांति का महत्त्व" के सवाल पर कन्वेंशन (सम्मलेन)

२२ नवम्बर २००९ (दिन रविवार): पटना गाँधी संग्रहालय ११ बजे दिन से शाम पाँच बजे तक

आज भारत ही नहीं पूरी दुनिया में आम लोगों के जीवन में भयंकर तबाही मची हुई है। एक बहुत बड़ी आबादी को दो जून की रोटी भी मयस्सर नहीं हो पा रही है। विश्व की लगभग तीन चौथाई आबादी बेकार, भूखे, नंगें और कुपोषित लोगों की फौज में तब्दील हो गई है। ................................

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कार्यक्रम का आमंत्रण पत्र

Sunday, October 11, 2009

आतंकी कारवाइयों से क्रांति नहीं हुआ करती है
दुनिया बदलने का काम आतंक से नहीं, जनक्रान्ति से
उकसाबेबाज़ नहीं, मार्क्सवादी-लेनिनवादी की तरह पेश आइये
झारखण्ड में अगवा किए गए पुलिस इंस्‍पेक्‍टर फ्रांसिस की गला काट कर नृशंस हत्या माओवादियों ने कर दी. उनकी यह करवाई सर्वथा निंदनीय है। क्रांति का मतलब एक दो पुलिसवालों की हत्या करना कदापि नहीं है। माओवादी पार्टी की क्रांति पुलिस वालों से बदला लेने की कारवाई में तब्दील होती जा रही है। सत्ता के द्वारा किए जा रहे दमन से जनता सत्ता के चरित्र को समझती है। फिर इस समझदारी को जनता की व्यापक और क्रन्तिकारी व तूफानी राजनितिक करवाई में बदलना और उसका नेतृत्व करना होता है जो किसी मोड़ पर आकर शासक वर्गों के ख़िलाफ़ युद्ध में परिणत कर जा सकता है। चूँकि इसमे शुरू से ही व्यापक आबादी के पक्ष के तरफ से होने वाली राजनीति जनांदोलन के केन्द्र में होती है, सेना और पुलिस वाले भी क्रांतिकारी आदोलन से प्रभावित होते रहते हैं। यह किसी भी जन क्रांति की जीत के लिए जरूरी है और यह दुनिया में हुई सभी तरह की - पूंजीवादी या साम्यवादी - क्रांतियों का इतिहास है। शायद यह पहली बार हो रहा है कि किसी क्रांति के नाम पर पुलिस वालों के खिलाफ बदले के भाव से हमला किया जा रहा है। यह न तो कार्यनीति के तौर पर और न ही नैतिक तौर पर ही ठीक है। माओवादी पार्टी के द्वारा जो किया जा रहा है वह सर्वहारा वर्गीय कम्युनिस्ट व्यवहार का नहीं, निम्न पूंजीवादी टूटपूंजिया और किसानी मानसिकता का परिचायक है।
व्यापक जनता को व्यापक और भव्य कम्युनिस्ट लक्ष्यों के पक्ष में राजनीतिक रूप से सक्रिय करते हुए राजसत्ता के दमन का प्रतिरोध करने के बजाय एक दो पुलिसवालों की पाशविक ह्त्या करना और इसे ही अपनी संतुष्टि का साधन बना लेना क्रांति और मार्क्सवाद-लेनिनवाद की प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ करने के बराबर है। नागरिक अधिकारों के हनन का प्रतिरोध होना ही चाहिए। जल-जंगल-जमीन से आदिवासियों की बेदखली , कॉरपोरेट घरानों को जल-जंगल सौंपें जाने के खिलाफ बेशक विरोध होना चाहिए। लेकिन दूसरी तरफ इसके विरोध के नाम पर किसी पुलिस वाले को पकड़ लेने के वाद गर्दन काटने को कत्तई जायज नहीं ठहराया जा सकता। सच तो यह है कि माओवाद के नाम पर जिस चीज को अमल में लाया जा रहा है, वह माओवाद है भी या नहीं, विवाद इस पर भी है। इसे कुछ लोग वामपंथी आतंकवाद कहते हैं, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह निराशा और हताशा से पैदा हुए मध्‍यवर्गीय दुस्‍साहसवाद के अलावा और कुछ नहीं है। यही चीज़ इन्हें जनता को राजनीतिक तौर से जागरूक और गोलबंद करने के दीर्घकालिक कठिन कार्य की जगह क्रान्ति का शोर्टकट रास्ता अपनाने के लिए उकसाता है। इस वजह से आसानी से एक बड़ा हमला करने और क्रांतिकारियों को नेस्तनाबूद करने का मौका सत्ताधारियों और उसके हिमायतियों को मिल जा सकता है। स्पष्ट जनपक्षीय राजनीतिक मुद्दों के अभाव में माओवादियों की कारवाई आम जनता के अन्दर भी एक तरह की वितृष्णा पैदा कर रही है जिस से सत्ताधारियों को हमला करने में और भी आसानी हो जा रही है।
उकसाबेबाजी से बाज़ आइये और जनता को राजनीति में सक्रिय करने के काम को हाथ में लीजिये ! और हो सके तो संसदीय चुनावों में लेनिनवादी ढंग से भाग लेते हुए धैर्यपूर्वक क्रांतिकारी परिस्थिति का निर्माण करिये !!

Friday, October 9, 2009

अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को नोबेल शान्ति पुरुष्कार आख़िर क्यों?
आज नोबेल कमिटी ने इस वर्ष के लिए 'प्रतिष्ठित' नोबेल शान्ति पुरुष्कार के लिए बराक ओबामा के नाम की घोषणा कर दी। दुनिया में कई लोग होंगे जिन्हें इस पर आश्चर्य हो रहा होगा। मैं भी ऐसे लोगों में से एक हूँ। फिर मैं गंभीरता से इस पर विचार करता हूँ तो यह बात शीघ्र ही स्पष्ट हो जाती है कि इस बात पर आश्चर्य करना निरी मूर्खता ही है। अब तक मिले नोबेल शान्ति पुरुष्कारों पर गौर करें तो यह ज्ञात होता है और इस बात का स्पष्टीकरण मिल जाता है कि स्वयं यह पुरुष्कार ही क्यों धीरे-धीरे विवादास्पद होता गया है। कुछ नामों को छोड़कर नोबेल शान्ति पुरूश्कारों से नवाजे गए ज्यादातर लोग शान्ति के विपरीत आचरण करने वाले रहे हैं। हाँ, सब कुछ के बावजूद, बराक ओबामा एक ऐसे 'नए' व्यक्ति का नाम है जो अपने काले रंग और होशियारी से तैयार किए गए भाषणों के कारण अभी-अभी, कुछ ही दिनों पहले, लोकप्रियता की बुलंदियों पर पहुंचा है और जिसके साम्राज्यावादी मंसूबों पर अभी भी एक झीना आवरण पड़ा हुआ है। इस लिहाज़ से नोबेल शान्ति पुरुष्कार के लिए बराक ओबामा का नाम आने से फिलहाल दुनिया के 'प्रगतिशील' जमातों में "हंगामा" शायद न हो। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतेगा और बराक ओबामा अपने वित्तपोषकों के पक्ष में अधिकाधिक और ज्यादा से ज्यादा खुले तौर से खड़े होंगे, वैसे-वैसे एक बार साबित होगा कि नोबेल शान्ति कमिटी का यह फैसला भी उतना ही गया गुजरा और साम्राज्यवादपक्षीय है जितना कि इसके पहले के अधिकांश फैसले।
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मुंबई के ५ हवाई अड्डों को रिलायंस के मालिक अनिल अम्बानी को कौड़ी के भाव पर सौंपे जाने के खिलाफ आवाज़ उठायें !!

आसमान छूती महंगाई और बेकारी से पहले ही परेशान और घायल जनता के घावों पर सरकार द्वारा नमक छिड़का गया !!!


मुंबई के पाँच हवाई अड्डों को केन्द्रीय सरकार ने रिलायंस के मालिक अनिल अम्बानी को मात्र ६३ करोड़ रूपयों में ९५ सालों के लिए दे दिए है। सरकार के ही कई विभागों जैसे कि राजस्व विभाग ने इस पर आप्पत्ति जाहिर की हैं। राजस्व विभाग ने कहा है कि सरकारी सम्पति को तीस सालों से अधिक समय के लिए लीज पर दिया ही नहीं जा सकता है। दूसरी तरफ एक दूसरे विभाग ने कहा है कि यह बहुत बड़े घाटे का सौदा है। सरकार कह रही है कि क्योंकि ये हवाई अड्डे काम नहीं कर रहे थे इसलिए इन्हें लीज पर दे दिया गया, जब कि सरकार ने हाल में ही इन हवाई अड्डों पर करोडों रूपये खर्च किए हैं। जाहिर है जनता द्वारा चुनी हुई सरकार जनता की संपत्ति को पूंजीपतियों को सौंपने पर आमदा है। क्या हमें यह मंज़ूर है? क्या हमें इसे मंज़ूर करना चाहिए? अगर नहीं तो आइए मिलजुल कर इसके खिलाफ आवाज़ बुलंद करें और इस पर विचार करें कि जनता द्वारा चुनी यह सरकार आम जनता की है या मुठ्ठी भर धन कुबेरों की है। आसमान छूती महंगाई और बेकारी से पहले ही परेशान जनता के घावों पर नमक छिड़कने वाली सरकार को हमें माफ नहीं करना चाहिए।

Thursday, October 8, 2009


मराठी और गैर-मराठी मजदूर और मेहनतकश
महाराष्ट्रा के चुनावों में राज ठाकरे और उसकी पार्टी को सबक जरूर सिखायेंगे !!!!!

चुनावों आते ही राज ठाकरे की बेशर्मी और अवसरवादिता उजागर हो गई है। नाशिक में गैर मराठी मजदूरों और कामगारों की अच्छी-खासी संख्या है। उनका वोट लेने के लिए राज ठाकरे हर तरह के हथकंडे अपना रहा है। राज ठाकरे उन्हें अपना वोटर बता उन पर आज अपना प्यार बर्षा रहा है !!! नाशिक वही शहर है जहाँ राज ठाकरे के गुंडों ने बाहरी लोगों पर सबसे ज्यादा जुल्म ढाए थे। क्या हम यह भूल जायेंगे? हम कभी यह भी नही भूल पाएंगे कि किस तरह कांग्रेस और अन्य पार्टियों ने इस पर चुप रहना बेहतर समझा था और राज ठाकरे का मन बढ़ाने का काम किया था।
राज ठाकरे की मनसे और उद्धव और बाल ठाकरे की शिवसेना मराठी मानुष की बात करती है। क्या वास्तव में ये लोग मराठी मानुष का भला चाहते हैं? सच तो यही है कि मनसे और शिवसेना दोनों पूंजीपतियों के लिए सस्ते श्रमिक मुहैय्या कराने वाले संगठन हैं। मुंबई में जब कपड़ा मिल बंद हो रहे थे और २४ लाख मजदूर नौकरी से बाहर हो गए थे तो इनमे से अधिकांश मराठी मजदूर ही थे। शिवसेना और मनसे तथा सम्पूर्ण ठाकरे परिवार ने तब मिल मालिकों को कारखाने बंद करने में पूरी सहायता की थी न कि मजदूरों का साथ दिया था। कौन भूलेगा कि तब ये लोग मजदूरों की हड़तालें तोड़ने का काम करते थे। कौन भूलेगा कि मजदूरों का साथ देने की तो बात ही दूर, इन लोगों ने बहादूर और लोकप्रिय मराठी मजदूर नेता कृष्णा देसाई और दत्ता सामंत को अपने गुंडों से हत्या करवा दिया था। ये लोग पूंजीपतियों के मन माफिक संगठित मराठी या बाहरी मजदूरों को हटवा कर सस्ते असंगठित मराठी और बंगलादेशी मजदूर रखवाते थे। इस तरह इन लोगों ने मालिकों के मुनाफे को खूब बढाया जिसका एक हिस्सा इन्हें भी मिला। इतना ही नही, जब जरूरत ख़त्म हो जाती तो फिर हिंदू-मुस्लिम और बाहरी-भीतरी का लफड़ा उठाकर ये लोग इन्हें भी मार भगा देते।
यही और ऐसा ही इनका सच्चा इतिहास है और मजदूर वर्ग को इस चुनाव में मनसे और शिवसेना को अवश्य ही सबक सिखाना चाहिए।


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नाम मराठी मानुष का, काम मजदूर मानुष के खिलाफ


महंगाई के मारे लोगों को दिल्ली में बस के भाड़े
में डेढ़ गुनी वृद्धि की सौगात देने का फैसला !!


दिल्ली सरकार ने दीपावली के बाद दिल्ली में बस भाड़े में वृद्धि की तैयारी कर ली है। बस में सफर करने वाले कौन हैं यह सबको पता है। अगर बस भाड़े में डेढ़ गुनी वृद्धि हो जाती है तो बसों में सफर करने वाले गरीबों का क्या होगा इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसा लगता है कि सरकार पूरी तरह अंधी और पत्थरदिल हो गई है और पूरी तरह पगला गई है। शायद वह वक्त नजदीक आ रहा है जब आम लोगों के सब्र का बाँध टूटेगा और जुल्म, अन्याय और शोषण पर टिकी इस व्यवस्था की चूलें हिलेंगी। हम सबका यह फ़र्ज़ बनता है कि बस भाड़े में होने वाली अप्रत्याशित वृद्धि का विरोध करें। आइये इसका विरोध करने के लिए हम सब एकजुट हों।