Thursday, August 20, 2009

अकाल, बाढ़, सुखाड़, बेकारी और गरीबी प्राकृतिक नही, मानव-निर्मित आपदा व व्यवस्थाजनित विभीषिका है. इन्हें पैदा करने वाली व्यवस्था को बदलना होगा

इस वर्ष पुरा देश अकाल की चपेट में आ गया है। मानसून ने दगा दिया नहीं कि हम पर अकाल का साया मंडराने लगा। आज़ादी के ६२ सालों बाद भी मानसून पर वही पुरानी निर्भरता बनी हुई है जो शर्म की बात है। सिर्फ एक इसी मामले में नहीं, जनता की सभी बुनियादी समस्यायों तथा ज्वलंत सवालों जैसे - शिक्षा, आवास, स्वास्थय और रोजगार आदि के बारे में भी यही बात की जा सकती है। तिस पर बिहार जैसे गरीब और पिछड़े राज्यों की गरीब जनता की बदहाल स्थिति की कल्पना आसानी से की जा सकती है। बिहार एक ऐसा राज्य है जहाँ की जनता पिछले छ: दशक से प्रत्यक वर्ष बाढ़ या तो सुखाड़ से तबाह और बरबाद होती आ रही है। प्रत्यक वर्ष लाखों गरीब और मजदूर लोग दाने-दाने के मोहताज़ हो जाते हैं। भारत के शासक-शोसक वर्गों से यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि देश के गरीब मेहनतकश अवाम के लिए आज तक उन्होंने क्या किया है। उल्टे, ये जनता को कभी भाग्य की घुट्टी पिलाते रहते हैं, जाति और धर्मं के बेकार के मसलों में उलझाये रखने की कोशिश में लगे रहते हैं, तो कभी झूठे वायदों और ऐसी बातों में उलझाए रखना चाहते हैं जिससे जनता शासक वर्गों द्वारा लागू की जा रही नीतियों पर सवाल न उठा सके। सबसे शर्मनाक बात यह है कि हमारे शासक आज़ादी के ६२ सालों बाद आज भी हमें मुर्ख बनने वाला वही पुराना पाठ बताते रहते हैं कि "बाढ़-सुखाड़ एक प्राकृतिक विभीषिका है" जिसका अर्थ यही निकलता है कि इसमे सरकार के लिए करने को कुछ नहीं है।
हद तो यह हो गई है कि इस बार के अकाल, सुखाड़ और पिछले दो दशक से साम्राज्यवादी वैश्वीकरण से प्रेरित नवउदारवादी नीतियों को लागू करने के फलस्वरूप पूरे विश्व में पैदा हुए आर्थिक संकट व मंदी के कारण पूरे देश में फैली बेकारी-भूखमरी को भी इसी तरह से धार्मिक और प्राकृतिक प्रकोप बताकर जनता को एक बार फिर से वेवकूफ बनाने की कोशिश की जा रही है। अकाल, भुखमरी, बेकारी और सुखाड़ आदि से इमानदारी से और सफलतापूर्वक निबटने में अपनी अक्षमता को और वर्तमान व्यवस्था के शोषणकारी चरित्र को जनता की नजर से छुपाने के लिए और आम जन को भरमाये रखने के लिए बिहार के हमारे नेताओं ने एक अजीबोगरीब बात और बहस शुरू कर दी है। इसमें सबसे आगे हैं कभी ब्राह्मणवाद और अन्धविश्वास से लड़ने की बड़ी-बड़ी बात करने वाले हमारे नेता लालू प्रसाद जी, जो इन दिनों खुलेआम बिहार की गरीब जनता के बीच अन्धविश्वास और भाग्यवाद फैलाने का काम कर रहे हैं। लालू जी कह रहे हैं कि बिहार में अकाल इसलिए आया है क्योंकि (मुख्यमंत्री) नीतिश कुमार जी ने सूर्यग्रहण के दिन बिस्कुट खाया था। आज उन्होंने कहा है कि हमें एक दिन उपवास रखना चाहिए और अनाज की बचत करनी चाहिए। लालू जी यह सलाह किसे दे रहे हैं? क्या उनको, उन गरीबों और मेहनतकश अर्ध बेकार मजदूरों को, जो प्रायः भरपेट खाना खाए ही सो जाते हैं? गरीबों के घर में अनाज ही नहीं है तो उनके उपवास का और बचत का क्या अर्थ हो सकता है? इसका तो सवाल ही पैदा नही होता है। तो क्या लालू जी उनकी बात कर रहे हैं जिनके पास अनाज और पैसा दोनों हैं? क्या आज उनकी ऐसी स्थिति हो गई है कि वे गरीबों को प्रभावित करने और आने वाले चुनाव में गरीबों की सहानुभूति लेने इतनी उलजलूल बात कर रहे हैं? क्या वे इतना भी नही जानते हैं कि जिनके पास अतिरिक्त अनाज है वे बाज़ार में उसे ले जाकर बेचेंगे और मुनाफा कमाएंगे न कि इससे गरीबों को फायदा होगा ! अनाज की जमाखोरी कराने वालों का तो नाम लेना भी उन्होंने गंवारा नहीं समझा ! जाहिर वे जनता को इन सबके लिए संघर्ष करने के लिए तो कह सकते नहीं, न ही वे सरकार से यह मांग ही कर सकते हैं कि जमाखोरों के पास जमा अनाज को तुंरत जब्त किया जाए। तब जनता को भाग्यवादी बनाने के अलावा इनके पास और रास्ता भी क्या है।
परंतु, इससे यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि अन्य नेतागण वैज्ञानिक सोच-विचार के स्वामी हैं। चाहे नीतिश जी हों या कोई और, वे सभी के सभी भाग्यवादी हैं। अगर वे अपने स्वयं के जीवन में भाग्यवादी न भी हों तब भी वे जनता को भाग्यवादी बनाने में पीछे नहीं हैं। सभी पूंजीवादी नेताओं को पता है कि अगर जनता भाग्य को छोड़ अपनी समस्याओं के असली कारण को पहचानने लगेगी, तो न तो यह राज रहेगा न इनका यह तख्तोताज रहेगा!!!!
वैसे यह बात पूरी तरह सच है कि भाग्यवाद फैलाना अकेले लालू जी की जरूरत नहीं है, पूरी की पूरी पूंजीवादी व्यवस्था इसी में लगी हुई है। जिस तरह से और जितनी मात्र में पूंजीवादी व्यवस्था मानवद्रोही, आदमखोर और हत्यारिन बन चुकी है उसे देखते हुए कोई भी कह सकता है कि यह एकमात्र इसीलिए और तभी तक टिकी हुई है जबतक कि जनता की बहुसंख्या असली राजनितिक स्थिति के बारे में अनभिज्ञ है और जागरूक नही बनी है। जिस दिन जनता राजनितिक रूप से जागरूक हो जायेगी, उसी दिन इस व्यवस्था का ठीक उसी तरह सत्यानाश हो जायेगा जिस तरह खून चूसने वाली व्यस्वस्थायों का दुनिया में हर जगह हुआ है। और, यह बात सिर्फ हम जानते हैं सो बात भी नहीं है, उल्टे, हमारे शोषक-शासक भी इस बात को अच्छी तरह जानते है। तभी तो वे इस कोशिश में हर दम लगे हैं कि आम जनता को मूर्ख बनाकर रखा जाए चाहे जैसे भी हो। हालांकि यह भी सच है कि वे अंततः इसमे सफल नहीं होंगे और जनता एक-न-एक दिन अपने भाग्य का फैसला स्वयं करने निकल पड़ेगी।
आज की पूंजीवादी समाज-व्यवस्था न तो सभ्यता के विकास में सहायक है और न ही वह संस्कृति और वैज्ञानिक सोच विकसित करने में ही सक्षम है। उल्टे इन सबके विकास में यह आज रोड़ा बना हुआ है। पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था के सारे अंतर्विरोध आज भयंकर रूप से काम कर रहे हैं। इसकी अतार्किकतायें आज समग्र रूप में प्रकट हो चुकी हैं। इसके बाह्य रूप (तथाकथित जनतंत्र) और इसके अन्तर्य (एकाधिकार और स्वतंत्रता विरोधी चरित्र) के बीच का अंतर्विरोध बिल्कुल खुले में आ चुका है। कंगाली और दारिद्रय के महासमुद्र में अखंड-अंतहीन ऐश्वर्य और आधिक्य के छोटे-छोटे टापू --- यही आज की सर्वत्र रूप से पायी जाने वाली सर्वजनीन सच्चाई बन गई है। परंतु, इन सबकी चेतना व्यापक जनता खासकर मजदूर वर्ग और मेहनतकश लोगों के बीच अभी तक नहीं पहुँची है। दूसरे, एक तरफ विश्वव्यापी आर्थिक संकट की मार है तो दूसरी तरफ अकाल का दानव जनता के समक्ष आ खडा हुआ है। बड़े पैमाने हुई बेकारी से लोगों का जीवन अत्यन्त ही कठिन हो गया है। आम जनों के बीच अपने भविष्य को लेकर गहरी निराशा व्याप्त हो गई है। सही राजनितिक चेतना में कमी की वजह से उनकी परेशानियों के लिए असली रूप में जिम्मेवार पूंजीवादी व्यवस्था उनकी नजर और कल्पना से बहार है। आम लोगों को अपने पूर्व जीवन के पाप तो दिखाई पड़ते हैं, जिन्हें वे आज के अपने दुखों के लिए जिम्मेवार मानते हैं, किंतु उन्हें आज की पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा किए जा रहे पाप नजर नहीं आ रहे हैं। वे आज भी भाग्यवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद और दुनिया भर के अंधविश्वासों में पड़े हुए हैं। आज की पूंजीवादी व्यवस्था के लिए यह एक वरदान से कम नहीं।
इसके अतिरिक्त पूंजीवाद 'जनतंत्र' के जिस राजनितिक खोल में काम करता है, वह भी जनता को भ्रम में डाले रहता है, वह उजरत गुलामी को आज़ादी के उपरी अहसास से ढंके रहता है। सरकार चुनने में जनता के वोट की 'अहमियत' से भी आज़ादी और स्वतंत्रता का अहसास होता है। यह एक हद तक सही भी है। गुलाम समाज या सामंती समाज की तुलना में यह व्यवस्था सचमुच ही आज़ादी प्रदान करती है। परंतु, समझने की बात यह है कि यह आज़ादी हमेशा कटी-छंटी और आधी-अधूरी होती है, क्योंकि 'जनतंत्र' के परदे के पीछे पूंजी की सर्वशक्तिमत्ता काम कराती है और पूंजी की ताकत ही मुख्या चीज़ होती है। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि स्वयं 'ख़ुद से सरकार चुनने वाली' गरीब जनता को यह अहसास होता है कि इस समाज में मानों कोई अदृश्य शक्ति है जो उनके पक्ष में नहीं है, और, जो कुछ दूसरे लोगों को अमीर बनाए हुए है। परदे के पीछे से काम करने वाली पूंजी कि सर्वशक्तिमत्ता ही वह अदृश्य शक्ति है जो हमारे समाज में वास्तविक रूप से राज करती है। पूंजीवादी कार्यपद्धति के ज्ञान का अभाव इस विश्वास को और पुष्ट बनाता है कि जनता की परेशानियों के पीछे जरूर कोई अलौकिक अदृश्य शक्ति जो उनके जीवन पर राज करती है। आदमी को अज्ञान उसे भाग्यवादी बनाता है। परंतु, इस अज्ञानता की भी एक सीमा है। यह हमेशा और अनवरत बने रहने वाली चीज नहीं है। स्वयं पूंजीवादी शोषण जनता को जागरूक करेगी, जागरूक बना रही है। पूंजीवाद जनता की तकलीफें बढ़ा रहा है, तो साथ में यह आम लोगों को जगा भी रहा है, पूंजीवाद के विरूद्व उन्हें स्वतः रूप से संगठित भी कर रहा है। यह कहावत सच है कि जब दर्द हद से ज्यादा बढ़ जाता है तो दवा बन जाता है। पूंजीवादी व्यवस्था के साथ यही कहावत चरितार्थ हो रही है।

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