Saturday, August 15, 2009

"ऐसी आज़ादी का हमारे लिए आख़िर क्या मतलब है?" --- एक मजदूर द्वारा प्रेषित ब्लॉग

मजदूरों -मेहनतकशों के लिए इस आज़ादी का आख़िर क्या अर्थ है? हम मजदूर तो उजरती गुलाम हैं फिर आज़ादी कैसी, स्वतंत्रता कैसी? हमें १५ अगस्त १९४७ को अंग्रेजों से मुक्ति मिली यह खुशी की बात है, परंतु, हमें और हमारे देश को साम्राज्यवाद से मुक्ति कहाँ मिली? आज़ादी के बाद भी हमारा देश साम्राज्यवाद के चंगुल से मुक्त नहीं हुआ है यह सच है।जहाँ तक हमारी बात है, हम जिस आजाद देश में रह रहे हैं वह एक पूंजीवादी जनतांत्रिक देश है। इसका अर्थ यह है कि हमारे देश की आर्थिक व्यवस्था पूंजीवादी है। पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था के लिए यह जरूरी है कि समाज में एक ऐसा तबका मौजूद हो जो जीवनयापन के अपने साधनों-संसाधनों से पूरी तरह अलग/वंचित हो गए हो और एकमात्र अपनी श्रम शक्ति को बेचकर ही जिन्दा रह सकता हो। दूसरे शब्दों में, पूंजीवाद में सर्वहारा वर्ग की मौजूदगी एक पूर्वशर्त है जिसके बिना पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था चल ही नहीं सकती है। दूसरी तरफ, एक मजदूर जो एकमात्र अपनी श्रम शक्ति बेचकर ही स्वयं अपने और अपने परिवार का पेट भर सकता है, वह अपनी श्रम शक्ति एक पूंजीपति को बेचता है। वह मजदूर निश्चय ही इस मायने में स्वतंत्र है कि वह चाहे तो अपनी श्रम शक्ति न बेचे, इसके लिए कोई इसे मजबूर नहीं करता है, या, इस पूंजीपति को नहीं उस पूंजीपति को बेचे। याने, उसे जहाँ मन करे अपने को बेचे। ऊपर से देखने पर यह देखने में स्वतंत्रता और आज़ादी के रूप में हमें दिखाई दित है। परंतु, एक सर्वहारा मजदूर, जिसके पास जीने का और कोई दूसरा साधन नहीं होता है, अगर अपना श्रम नहीं बेचेगा तो उसे और उसके परिवार को भूखा रहना पड़ेगा। वह सिर्फ कहने को ही आजाद है, असल में तो वह गुलाम है। जब वह किसी पूंजीपति से अपनी श्रम शक्ति के मूल्य को लेकर मोल-भाव करता है, तो पूंजीपतिवर्ग को मजदूर वर्ग की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का पूरा ज्ञान होता है। जाहिर है अगर किसी समाज में गरीबों और मजबूरों की संख्या बढ़ती है और ज्यादा से ज्यादा लोगों का पूंजीवादी सम्पतिहरण हो रहा हो और दूसरे लोग भी सर्वहारा की पांतों में शामिल हो रहे हों, तो श्रम आधिक्य की स्थिति बनती है, जिससे श्रम बाज़ार में श्रम की कीमत में और भी ह्रास होता है। एक ही काम के लिए कई सौ हज़ार मजदूर पंक्ति में खड़े हों तो पूंजीपति वर्ग के लिए मजदूरों के शोषण के और भी बेहतर मौके मिलने लगते हैं। इसीलिए तो कहा जाता है कि पूंजीवादी विकास, याने, पूंजीवादी संचय और केन्द्रीकरण के नियम प्रतिदिन निम्न पूंजीपति वर्ग के एक हिस्से का सम्पतिहरण करता रहते है। इन सबके परिणामस्वरूप समाज के एक छोर पर मुठ्ठी भर लोगों (पूंजीपतियों) के पास वैभव का अम्बार पैदा हो रहा है, तो वही दूसरी तरफ, गरीबों-मजलूमों की एक बड़ी फौज खड़ी होती जा रही है। क्या ऐसी स्थिति में यह आज़ादी हम जैसे लोगों - मजदूरों व मेहनतकशों के लिए वास्तव में कोई मायने रखता है? (edited to some extent by the editor of this blog)

1 comment:

  1. सही कह रहे हैं आप .. जिस आजादी के लिए हमारे शहीदों ने जान दी .. उसका कोई पता ठिकाना नहीं .. महंगाई पर आपके विचार भी अच्‍छे लगे।

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