Thursday, December 31, 2009

नया वर्ष हमारे सभी साथियों के लिए मंगलमय हो !

नए वर्ष में न्यायपूर्ण उद्देश्यों की जीत हो!!

पूंजी की दासता और गुलामी का एक और वर्ष बीत गया ! आइये, नए वर्ष में न्याय की जीत हो और गुलामी का खात्मा हो, हम सभी इस बात की कामना और कोशिश करें !!

Friday, December 25, 2009

ये आंकड़े क्या कहते हैं ?


१) भारत के लगभग आधे बच्चे कुपोषण के शिकार हैं!
२) दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों में एक तिहाई संख्या भारतीय बच्चों की है।
३) देश में हर तीन सेकंड में एक बच्चे की मौत हो जाती है।
४) देश में प्रतिदिन लगभग 10,000 बच्चों की मौत होती है, इसमें लगभग 3000 मौतें कुपोषण के कारण होती हैं।
५) सिर्फ अतिसार के कारण ही प्रतिदिन 1000 बच्चें की मौत हो जाती है।
६) भारत के पाँच वर्ष से कम उम्र के 38 फीसदी बच्चों की लम्बाई सामान्य से बहुत कम है।
७) 15 फीसदी बच्चे अपनी लम्बाई के लिहाज से बहुत दुबले हैं।
८) 43 फीसदी (लगभग आधे) बच्चों का वजन सामान्य से बहुत कम है।
९) हर 1000 में से 57 बच्चे पैदा होते ही मर जाते हैं।
१०) भारत में प्रति वर्ष 74 लाख कम वजन वाले बच्चे पैदा होते हैं - जो कि दुनिया में सबसे अधिक है।
११) विश्व भर में 97 लाख बच्चे पाँच साल की उम्र पूरी करने से पहले ही मर जाते हैं, इनमें 21 लाख (यानी लगभग 21 प्रतिशत) बच्चे भारत के हैं।
१२) हर 4 में से 1 लड़की और हर 10 में से 1 लड़का प्राथमिक शिक्षा से वंचित है।
१३) गर्भ या प्रसव के दौरान आधी महिलाओं को उचित देख-भाल नहीं मिलती।
१४) देश की 50 प्रतिशत महिलाओं और 80 प्रतिशत बच्चों में खून की कमी है।
१५) देश का हर चौथा आदमी भूखे पेट रहता है। दुनिया भर में भूखे रहने वालों का एक तिहाई हिस्सा भारत में रहता है।
१६) पिछले 4-5 सालों में अधिकतर खाद्य पदार्थों की कीमतों में 50 से 100 प्रतिशत का इजाफा हो चुका है।
१७) 77 प्रतिशत भारतीय 20 रुपये रोज से कम पर गुजारा करते हैं।
१८) देश की केन्द्र सरकार अपने खर्च का महज 2 प्रतिशत स्वास्थ्य पर और 2 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करती है। इसकी तुलना में सुरक्षा पर 15 प्रतिशत खर्च किया जाता है।
१९) संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून के अनुसार दुनिया में अब लगभग 1 अरब से अधिक लोग भुखमरी का शिकार हैं।

क्या ऐसे समाज की कल्पना हमने की थी?

आइये अपने सपने की समाज व्यवस्था बनाने के लिए कुछ करें ........

Tuesday, December 15, 2009

२२ नवम्बर २००९ को "रूसी नवम्बर क्रांति का महत्व और उसके सबक" विषय
पर हुए कन्वेंशन के कुछ दृष्य

"दैनिक जागरण" (२३ नवम्बर २००९) में प्रकाशित ख़बर

हौल में बैठे हुए कामरेड और दूसरे संगठनों के अतिथि लोग

इफ्टू के कामरेड सुनील पाल बोलते हुए

Wednesday, December 9, 2009

लुधियाना के प्रवासी मजदूरों (ज्यादातर बिहार और उत्तरप्रदेश के) के न्यायपूर्ण आन्दोलन के पक्ष में पटना में साझा मार्च और नुक्कड़ सभा हुई

पटना में गत 8दिसम्बर 2009 के दिन जन अभियान के बैनर तले बिहार में कार्यरत दर्ज़न भर जनवादी, प्रगतिशील व क्रांतिकारी संगठनों के तरफ से एक साझा मार्च रेडियो स्टेशन से पटना स्टेशन गोलंबर तक निकाला गया। इसमे जन अभियान के घटक संगठनों के अलावे भाग लेने वाले व्यक्तियों में थे - सर्वहारा जन मोर्चा के अजय कुमार सिन्हा और श्रम मुक्ति संगठन के जय प्रकाश तथा पटना विश्व विद्यालय के अर्थ शास्त्र विभाग के प्रोफेसर श्री नवल किशोर चौधरी आदि भी शामिल थे। सभी वक्ताओं ने एक स्वर में लुधियान लुधियाना के प्रवासी मजदूरों (ज्यादातर बिहार और उत्तरप्रदेश के) के न्यायपूर्ण आन्दोलन के पक्ष में खड़े होने का आह्वान किया। यह बात भी जोर-शोर के साथ उठाई गई कि किसी को भी देश के किसी भी कोने में जाकर अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ करने का अधिकार है। यह भी कहा गया कि स्वयं पूंजीवादी व्यवस्था मजदूरों की बर्बादी और उनके पलायन के लिए जिम्मेवार है और उसी ने क्षेत्रवाद और का जहर भी फैला रखा है। पूंजीवादी गुर्गे और पार्टियां जानबूझ कर प्रवासी और गैर प्रवासी के बीच भेद पैदा कर के पूंजीपतियों के लिए सुअवसर पैदा करते हैं। सभी वक्ताओं ने लुधियाना के मजदूरों के साथ एकजुटता का प्रदर्शन करते हुए पूंजीवादी और जुल्मी व्यवस्था को पलटने और एक नई शोषणमुक्त व्यवस्था बनाने का आह्वान किया।

Sunday, December 6, 2009

लगातार घोर शोषण और लूट को झेलते बिहार व उत्तर प्रदेश के मजदूरों का गुस्सा फूट पड़ा




पुलिस और मालिकों के गुंडों की खुली मिलीभगत






लगातार हो रहे घोर शोषण और लूट से त्रस्त लुधियाना में कार्यरत बिहारी व उत्तर प्रदेश के मजदूरों का रोषपूर्ण जुलुस और प्रदर्शन और उसके बाद वहशी पंजाब पुलिस के कारनामे के कुछ मर्मस्पर्शी दृश्य

ये फोटो बता रहे हैं कि पंजाब पुलिस, स्थानीय गुंडों और फैक्ट्री मालिकों के जरखरीद लम्पटों की खुली मिलीभगत है। मजदूरों के लिए जरूरी है कि वे इस बात से सबक लें और फौरी तौर पर अपने को वहां संगठित करें जहाँ वे श्रम अर्थात काम करते हैं। यह तो असंभव है कि अब से वे बाहर जायेंगे ही नहीं, कारण यह कि जब तक यह पूंजीवादी व्यवस्था है, तब तक न तो रोजी-रोटी के लिए उनका बाहर जाना बंद हो सकता है और न ही रोज-रोज उनका उजड़ना ही बंद हो सकता है। जहाँ तक नितीश कुमार का प्रश्न है, वे जरूर आने वाले बिहार चुनाव का ख्याल रखते हुए पंजाब में मजदूरों की पिटाई के खिलाफ बोल रहे हैं, परंतु वे स्वयं एक पूंजीवादी शासक ही हैं। क्या उनके बिहार में पुलिस मजदूरों के साथ घिनौना व्यवहार नहीं करती है? क्या नितीश कुमार की यानी बिहार की पुलिस आंदोलनरत मजदूरों व आम लोगों के साथ वैसा ही व्यवहार नहीं करती है जैसा कि पंजाब पुलिस कर रही है ? पूंजीवादी व्यवस्था में पुलिस का यही रवैया हर जगह है। मजदूर-गरीब और मेहनतकश जनता को एकमात्र अपनी एकता और अपने संगठन की ताकत पर ही भरोसा करनी चाहिए। मजदूर वर्ग की एकता ही उनकी एकमात्र ताकत है।

Friday, December 4, 2009

दिल्ली में पानी और महंगा हुआ !

क्या यह सरकार और व्यवस्था कल हमसे हमारी हवा भी हमसे छीन लेगी ? हम सबको इस पर विचार करना ही होगा। विचार करना शुरू करना होगा, अभी ही और आज ही। पता नहीं, हवा कब छीन जाए!

देश के सभी राज्यों के गरीब व मेहनतकश लोगों एक हो !
गरीब और मेहनतकश लोग अपनी एकता के बल पर ही अपनी सुरक्षा कर पाएंगे और अपने हक़ अधिकार के लिए लड़ पाएंगे!!
पंजाब (लुधियाना) सहित अन्य जगहों पर बिहारी प्रवासी मजदूरों व कामगारों पर हो रहे जुल्म व अत्याचार के खिलाफ आवाज़ बुलंद करें
हम जानते हैं कि पूंजीवादी विकास असमान ढंग से ही हो सकता है। इसलिए पूंजीवादी व्यवस्था में देश के सभी क्षेत्रों का विकास एकसमान रूप से हो ही नहीं सकता है। यही कारण है कि आज पंजाब, मुंबई, दिल्ली आदि विकसित क्षेत्र बन गए हैं, तो बिहार, उत्तरप्रदेश आदि पिछड़े हुए रह गए हैं जहाँ के गरीब मजदूर लोग अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिए विकसित क्षेत्रों में पलायन करने के लिए बाध्य होते हैं। इसके लिए अगर कोई दोषी है, तो वह पूंजीवादी व्यवस्था है जिसकी ख़ास तरह की उत्पादन पद्धति के कारण बिहार जैसे राज्यों को मजदूर-सप्लाई का प्रदेश बनना पड़ा है। अगर बिहार नहीं बनता तो किसी और राज्य को श्रम-सप्लाई वाला राज्य बनना पड़ता। इतना ही नहीं, सस्ते श्रम की प्रचुरता हो ताकि शोषण को ज्यादा से ज्यादा तीव्र किया जा सके इसके लिए जानबुझ कर "गरीब क्षेत्र'' रखे व बनाये जाते हैं। तभी तो जीवन-यापन से वंचित श्रमिकों की विशाल फौज खड़ी होगी जिनका पूंजी मनमाफिक ढंग से शोषण कर सकती है। पंजाब, लुधियाना, चंडीगढ़, फरीदाबाद, नोएडा जैसे नए औद्योगिक क्षेत्रों में आजकल इसी बात का खुलेआम नज़ारा देखने को मिल रहा है। मजदूरों को एक तरफ मनसे और राज ठाकरे जैसे गुर्गों के द्वारा क्षेत्र और राज्य के आधार पर बांटा जाता है तो दूसरी तरफ उनके विरोध को दबाने में यहाँ तक कि उनके आन्दोलन को रक्तरंजित कर देने के लिए शुरू से ही कोशिश शुरू हो जाती है।
कल जिस तरह लुधियाना में बिहार से आए मूलतः कृषि मजदूरों का गुस्सा फूटा और जिस वहशी अंदाज़ में पुलिस वालों और मिल मालिकों के गुंडों नें मजदूरों के साथ व्यवहार किया, वह सब इसी बात के प्रमाण हैं। जाहिर है, सभी न्याय पसंद लोगों को इसके खिलाफ आवाज़ बुलंद करनी चाहिए।

Tuesday, November 24, 2009

२२ नवम्बर २००९ को "आज के सन्दर्भ में रूसी नवम्बर समाजवादी क्रांति का महत्त्व और उसके सबक" विषय पर कन्वेंशन सफलतापूर्वक संपन्न हुआ

साथियों,
उपर्युक्त विषय पर कन्वेंशन पूरी तरह सफल हुआ। लेफ्ट एवं क्रन्तिकारी लेफ्ट के सभी हिस्सों के साथियों ने कन्वेंशन में भाग लिया। कुल मिलाकर १५० से ऊपर लोगों ने इसमें शिरकत की। शुरूआती परेशानियों के बावजूद जब एक बार कन्वेंशन शुरू हो गया तो यह सफलतापूर्वक संपन्न हो गया। यही नहीं, एक अच्छी और स्वस्थ बहस हुई और कन्वेंशन तय समय सीमा से भी अधिक समय तक बिना रुके चलता रहा। सभी लोगों ने प्रस्तुत किए गए आलेख को सराहा और इसे विचारोत्तेजक करार दिया।

कन्वेंशन में प्रस्तुत किए गए आलेख को पढने के लिए
कृपया यहाँ क्लिक करें


कृपया पेपर जरूर पढ़ें और पढ़ कर अपना मत हम तक जरूर पहुंचाएं

Tuesday, October 27, 2009

"आज के सन्दर्भ में रूसी नवम्बर समाजवादी क्रांति का महत्त्व" के सवाल पर कन्वेंशन (सम्मलेन)

२२ नवम्बर २००९ (दिन रविवार): पटना गाँधी संग्रहालय ११ बजे दिन से शाम पाँच बजे तक

आज भारत ही नहीं पूरी दुनिया में आम लोगों के जीवन में भयंकर तबाही मची हुई है। एक बहुत बड़ी आबादी को दो जून की रोटी भी मयस्सर नहीं हो पा रही है। विश्व की लगभग तीन चौथाई आबादी बेकार, भूखे, नंगें और कुपोषित लोगों की फौज में तब्दील हो गई है। ................................

पूरा पर्चा पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें

कार्यक्रम का आमंत्रण पत्र

Sunday, October 11, 2009

आतंकी कारवाइयों से क्रांति नहीं हुआ करती है
दुनिया बदलने का काम आतंक से नहीं, जनक्रान्ति से
उकसाबेबाज़ नहीं, मार्क्सवादी-लेनिनवादी की तरह पेश आइये
झारखण्ड में अगवा किए गए पुलिस इंस्‍पेक्‍टर फ्रांसिस की गला काट कर नृशंस हत्या माओवादियों ने कर दी. उनकी यह करवाई सर्वथा निंदनीय है। क्रांति का मतलब एक दो पुलिसवालों की हत्या करना कदापि नहीं है। माओवादी पार्टी की क्रांति पुलिस वालों से बदला लेने की कारवाई में तब्दील होती जा रही है। सत्ता के द्वारा किए जा रहे दमन से जनता सत्ता के चरित्र को समझती है। फिर इस समझदारी को जनता की व्यापक और क्रन्तिकारी व तूफानी राजनितिक करवाई में बदलना और उसका नेतृत्व करना होता है जो किसी मोड़ पर आकर शासक वर्गों के ख़िलाफ़ युद्ध में परिणत कर जा सकता है। चूँकि इसमे शुरू से ही व्यापक आबादी के पक्ष के तरफ से होने वाली राजनीति जनांदोलन के केन्द्र में होती है, सेना और पुलिस वाले भी क्रांतिकारी आदोलन से प्रभावित होते रहते हैं। यह किसी भी जन क्रांति की जीत के लिए जरूरी है और यह दुनिया में हुई सभी तरह की - पूंजीवादी या साम्यवादी - क्रांतियों का इतिहास है। शायद यह पहली बार हो रहा है कि किसी क्रांति के नाम पर पुलिस वालों के खिलाफ बदले के भाव से हमला किया जा रहा है। यह न तो कार्यनीति के तौर पर और न ही नैतिक तौर पर ही ठीक है। माओवादी पार्टी के द्वारा जो किया जा रहा है वह सर्वहारा वर्गीय कम्युनिस्ट व्यवहार का नहीं, निम्न पूंजीवादी टूटपूंजिया और किसानी मानसिकता का परिचायक है।
व्यापक जनता को व्यापक और भव्य कम्युनिस्ट लक्ष्यों के पक्ष में राजनीतिक रूप से सक्रिय करते हुए राजसत्ता के दमन का प्रतिरोध करने के बजाय एक दो पुलिसवालों की पाशविक ह्त्या करना और इसे ही अपनी संतुष्टि का साधन बना लेना क्रांति और मार्क्सवाद-लेनिनवाद की प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ करने के बराबर है। नागरिक अधिकारों के हनन का प्रतिरोध होना ही चाहिए। जल-जंगल-जमीन से आदिवासियों की बेदखली , कॉरपोरेट घरानों को जल-जंगल सौंपें जाने के खिलाफ बेशक विरोध होना चाहिए। लेकिन दूसरी तरफ इसके विरोध के नाम पर किसी पुलिस वाले को पकड़ लेने के वाद गर्दन काटने को कत्तई जायज नहीं ठहराया जा सकता। सच तो यह है कि माओवाद के नाम पर जिस चीज को अमल में लाया जा रहा है, वह माओवाद है भी या नहीं, विवाद इस पर भी है। इसे कुछ लोग वामपंथी आतंकवाद कहते हैं, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह निराशा और हताशा से पैदा हुए मध्‍यवर्गीय दुस्‍साहसवाद के अलावा और कुछ नहीं है। यही चीज़ इन्हें जनता को राजनीतिक तौर से जागरूक और गोलबंद करने के दीर्घकालिक कठिन कार्य की जगह क्रान्ति का शोर्टकट रास्ता अपनाने के लिए उकसाता है। इस वजह से आसानी से एक बड़ा हमला करने और क्रांतिकारियों को नेस्तनाबूद करने का मौका सत्ताधारियों और उसके हिमायतियों को मिल जा सकता है। स्पष्ट जनपक्षीय राजनीतिक मुद्दों के अभाव में माओवादियों की कारवाई आम जनता के अन्दर भी एक तरह की वितृष्णा पैदा कर रही है जिस से सत्ताधारियों को हमला करने में और भी आसानी हो जा रही है।
उकसाबेबाजी से बाज़ आइये और जनता को राजनीति में सक्रिय करने के काम को हाथ में लीजिये ! और हो सके तो संसदीय चुनावों में लेनिनवादी ढंग से भाग लेते हुए धैर्यपूर्वक क्रांतिकारी परिस्थिति का निर्माण करिये !!

Friday, October 9, 2009

अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को नोबेल शान्ति पुरुष्कार आख़िर क्यों?
आज नोबेल कमिटी ने इस वर्ष के लिए 'प्रतिष्ठित' नोबेल शान्ति पुरुष्कार के लिए बराक ओबामा के नाम की घोषणा कर दी। दुनिया में कई लोग होंगे जिन्हें इस पर आश्चर्य हो रहा होगा। मैं भी ऐसे लोगों में से एक हूँ। फिर मैं गंभीरता से इस पर विचार करता हूँ तो यह बात शीघ्र ही स्पष्ट हो जाती है कि इस बात पर आश्चर्य करना निरी मूर्खता ही है। अब तक मिले नोबेल शान्ति पुरुष्कारों पर गौर करें तो यह ज्ञात होता है और इस बात का स्पष्टीकरण मिल जाता है कि स्वयं यह पुरुष्कार ही क्यों धीरे-धीरे विवादास्पद होता गया है। कुछ नामों को छोड़कर नोबेल शान्ति पुरूश्कारों से नवाजे गए ज्यादातर लोग शान्ति के विपरीत आचरण करने वाले रहे हैं। हाँ, सब कुछ के बावजूद, बराक ओबामा एक ऐसे 'नए' व्यक्ति का नाम है जो अपने काले रंग और होशियारी से तैयार किए गए भाषणों के कारण अभी-अभी, कुछ ही दिनों पहले, लोकप्रियता की बुलंदियों पर पहुंचा है और जिसके साम्राज्यावादी मंसूबों पर अभी भी एक झीना आवरण पड़ा हुआ है। इस लिहाज़ से नोबेल शान्ति पुरुष्कार के लिए बराक ओबामा का नाम आने से फिलहाल दुनिया के 'प्रगतिशील' जमातों में "हंगामा" शायद न हो। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतेगा और बराक ओबामा अपने वित्तपोषकों के पक्ष में अधिकाधिक और ज्यादा से ज्यादा खुले तौर से खड़े होंगे, वैसे-वैसे एक बार साबित होगा कि नोबेल शान्ति कमिटी का यह फैसला भी उतना ही गया गुजरा और साम्राज्यवादपक्षीय है जितना कि इसके पहले के अधिकांश फैसले।
बराक ओबामा के बारे में अन्य लेख के लिए यहाँ क्लिक करें ------


मुंबई के ५ हवाई अड्डों को रिलायंस के मालिक अनिल अम्बानी को कौड़ी के भाव पर सौंपे जाने के खिलाफ आवाज़ उठायें !!

आसमान छूती महंगाई और बेकारी से पहले ही परेशान और घायल जनता के घावों पर सरकार द्वारा नमक छिड़का गया !!!


मुंबई के पाँच हवाई अड्डों को केन्द्रीय सरकार ने रिलायंस के मालिक अनिल अम्बानी को मात्र ६३ करोड़ रूपयों में ९५ सालों के लिए दे दिए है। सरकार के ही कई विभागों जैसे कि राजस्व विभाग ने इस पर आप्पत्ति जाहिर की हैं। राजस्व विभाग ने कहा है कि सरकारी सम्पति को तीस सालों से अधिक समय के लिए लीज पर दिया ही नहीं जा सकता है। दूसरी तरफ एक दूसरे विभाग ने कहा है कि यह बहुत बड़े घाटे का सौदा है। सरकार कह रही है कि क्योंकि ये हवाई अड्डे काम नहीं कर रहे थे इसलिए इन्हें लीज पर दे दिया गया, जब कि सरकार ने हाल में ही इन हवाई अड्डों पर करोडों रूपये खर्च किए हैं। जाहिर है जनता द्वारा चुनी हुई सरकार जनता की संपत्ति को पूंजीपतियों को सौंपने पर आमदा है। क्या हमें यह मंज़ूर है? क्या हमें इसे मंज़ूर करना चाहिए? अगर नहीं तो आइए मिलजुल कर इसके खिलाफ आवाज़ बुलंद करें और इस पर विचार करें कि जनता द्वारा चुनी यह सरकार आम जनता की है या मुठ्ठी भर धन कुबेरों की है। आसमान छूती महंगाई और बेकारी से पहले ही परेशान जनता के घावों पर नमक छिड़कने वाली सरकार को हमें माफ नहीं करना चाहिए।

Thursday, October 8, 2009


मराठी और गैर-मराठी मजदूर और मेहनतकश
महाराष्ट्रा के चुनावों में राज ठाकरे और उसकी पार्टी को सबक जरूर सिखायेंगे !!!!!

चुनावों आते ही राज ठाकरे की बेशर्मी और अवसरवादिता उजागर हो गई है। नाशिक में गैर मराठी मजदूरों और कामगारों की अच्छी-खासी संख्या है। उनका वोट लेने के लिए राज ठाकरे हर तरह के हथकंडे अपना रहा है। राज ठाकरे उन्हें अपना वोटर बता उन पर आज अपना प्यार बर्षा रहा है !!! नाशिक वही शहर है जहाँ राज ठाकरे के गुंडों ने बाहरी लोगों पर सबसे ज्यादा जुल्म ढाए थे। क्या हम यह भूल जायेंगे? हम कभी यह भी नही भूल पाएंगे कि किस तरह कांग्रेस और अन्य पार्टियों ने इस पर चुप रहना बेहतर समझा था और राज ठाकरे का मन बढ़ाने का काम किया था।
राज ठाकरे की मनसे और उद्धव और बाल ठाकरे की शिवसेना मराठी मानुष की बात करती है। क्या वास्तव में ये लोग मराठी मानुष का भला चाहते हैं? सच तो यही है कि मनसे और शिवसेना दोनों पूंजीपतियों के लिए सस्ते श्रमिक मुहैय्या कराने वाले संगठन हैं। मुंबई में जब कपड़ा मिल बंद हो रहे थे और २४ लाख मजदूर नौकरी से बाहर हो गए थे तो इनमे से अधिकांश मराठी मजदूर ही थे। शिवसेना और मनसे तथा सम्पूर्ण ठाकरे परिवार ने तब मिल मालिकों को कारखाने बंद करने में पूरी सहायता की थी न कि मजदूरों का साथ दिया था। कौन भूलेगा कि तब ये लोग मजदूरों की हड़तालें तोड़ने का काम करते थे। कौन भूलेगा कि मजदूरों का साथ देने की तो बात ही दूर, इन लोगों ने बहादूर और लोकप्रिय मराठी मजदूर नेता कृष्णा देसाई और दत्ता सामंत को अपने गुंडों से हत्या करवा दिया था। ये लोग पूंजीपतियों के मन माफिक संगठित मराठी या बाहरी मजदूरों को हटवा कर सस्ते असंगठित मराठी और बंगलादेशी मजदूर रखवाते थे। इस तरह इन लोगों ने मालिकों के मुनाफे को खूब बढाया जिसका एक हिस्सा इन्हें भी मिला। इतना ही नही, जब जरूरत ख़त्म हो जाती तो फिर हिंदू-मुस्लिम और बाहरी-भीतरी का लफड़ा उठाकर ये लोग इन्हें भी मार भगा देते।
यही और ऐसा ही इनका सच्चा इतिहास है और मजदूर वर्ग को इस चुनाव में मनसे और शिवसेना को अवश्य ही सबक सिखाना चाहिए।


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नाम मराठी मानुष का, काम मजदूर मानुष के खिलाफ


महंगाई के मारे लोगों को दिल्ली में बस के भाड़े
में डेढ़ गुनी वृद्धि की सौगात देने का फैसला !!


दिल्ली सरकार ने दीपावली के बाद दिल्ली में बस भाड़े में वृद्धि की तैयारी कर ली है। बस में सफर करने वाले कौन हैं यह सबको पता है। अगर बस भाड़े में डेढ़ गुनी वृद्धि हो जाती है तो बसों में सफर करने वाले गरीबों का क्या होगा इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसा लगता है कि सरकार पूरी तरह अंधी और पत्थरदिल हो गई है और पूरी तरह पगला गई है। शायद वह वक्त नजदीक आ रहा है जब आम लोगों के सब्र का बाँध टूटेगा और जुल्म, अन्याय और शोषण पर टिकी इस व्यवस्था की चूलें हिलेंगी। हम सबका यह फ़र्ज़ बनता है कि बस भाड़े में होने वाली अप्रत्याशित वृद्धि का विरोध करें। आइये इसका विरोध करने के लिए हम सब एकजुट हों।

Saturday, September 26, 2009

इशरत जहां के कातिलों को सजा दो और भारत में अबतक हुए सभी मूठभेड़ों की जांच कराई जाए.

हम सभी को मालूम है न्यायविद तमांग ने अपनी जांच रिपोर्ट में यह साफ़ कह दिया है कि इशरत का कोई सम्बन्ध पाकिस्तानी आतंकियों से नहीं है, इसलिए यह हम सभी का फ़र्ज़ बनता है कि हम इशरत जहां के कातिलों को सजा देने के लिए आवाज़ उठाएं। यही नहीं हमें हिन्दुस्तान में हुए तमाम मूठभेड़ों की न्यायिक जांच के लिए भी आवाज़ बुलंद करनी चाहिए।
यह याद रखने की जरूरत है कि झूठे मूठभेड़ों में मार दिए जाने वालों में वैसे लोग भी हैं जो जनता के तरफ से इमानदारी से आवाज़ उठाने वाले हैं। क्रांतिकारियों के साथ भी आज से नहीं वर्षों से ऐसा हो रहा है। इस मामले में तो पूरा देश ही मूठभेड़ों का देश बनता जा रहा है। जब किसी झूठे मूठभेड़ पर से परदा उठाता है तभी जा कर आम आदमी को यह मालूम हो पाटा है कि हमारे देश में पुलिस व्यवस्था किस तरह से काम कराती है और यह कितनी घोर जनविरोधी है। इसलिए आपका और हम सबका यह फ़र्ज़ बनता है कि हम अपने और दूसरों के जनवाद के लिए लड़ें। एकमात्र तभी हम अपने देश को हिटलरशाही से बचा सकते हैं।

Thursday, September 3, 2009

"अतुलनीय" भारत - जहाँ हर चौथा आदमी भूखा है !

पिछले विधानसभा चुनाव में बहुमत हासिल कर दोबारा सत्ता पर काबिज होने वाले मध्‍य प्रदेश के भाजपाई मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान और उनके प्रदेश की झोली में कुछ और तमगे आ गिरे हैं। एक गैर सरकारी संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक इस वर्ष मई के महीने के बाद से मध्‍य प्रदेश के कम से कम चार जिलों में छह वर्ष से कम उम्र के 450 बच्चों की कुपोषण से मौत हो गई है। राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण-तीन की रिपोर्ट के अनुसार म.प्र. में कुपोषण 54 प्रतिशत से बढ़कर 60 प्रतिशत हो गया है जिसका मतलब यह है कि मप्र के बच्चे भारत के सबसे कुपोषित बच्चे बन गए हैं। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। शिशु मृत्यु दर के मामले मे भी मध्‍य प्रदेश भारत का अव्वल राज्य है जहाँ ज़िन्दा पैदा होने वाले हर 1000 बच्चों में से 72 की पैदा होते ही मौत हो जाती है (नमूना पंजीकरण सर्वेक्षण 2007-08)। यह गौरव हासिल करने वाला म.प्र. अकेला राज्य नहीं है! राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली उसे कड़ी टक्कर दे रही है। वैसे तो पूरे देश के स्तर पर ''अतुलनीय भारत'' की यही दशा है। स्थिति कितनी भयावह है इसे स्पष्ट करने के लिए चन्द एक ऑंकड़े ही पर्याप्त होंगे। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत के पाँच वर्ष से कम उम्र के 38 फीसदी बच्चों की लम्बाई सामान्य से बहुत कम है, 15 फीसदी बच्चे अपनी लम्बाई के लिहाज से बहुत दुबले हैं, और 43 फीसदी (लगभग आधे) बच्चों का वजन सामान्य से बहुत कम है। पर्यावरणविद डा. वन्दना शिवा द्वारा हाल ही में जारी एक रिपोर्ट से पता चलता है कि आज देश के हर चौथे आदमी को भरपेट भोजन मयस्सर नहीं हो पा रहा है। कुछ ही साल पहले जारी अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक लगभग 77 प्रतिशत भारतीय 20 रुपया रोज से कम गुजारा करते हैं। उसके बाद से महँगाई जिस रफ्तार से बढ़ी है उसे देखते हुए सहज ही अन्दाजा लगा जा सकता है कि आज की स्थिति और भी भयानक हो चुकी होगी। एक तरफ सरकार मुद्रास्फीति की दर के ऋणात्मक हो जाने की बात कर रही है वहीं दूसरी तरफ पिछले 4-5 सालों में अधिकतर खाद्य पदार्थों की कीमतों में 50 से 100 प्रतिशत का इजाफा हो चुका है। जैसे-जैसे खेती में कारपोरेट सेक्टर की पैठ बढ़ती जा रही है और लोगों की आश्यकताओं के अनुरूप नहीं बल्कि बाज़ार को ध्‍यान में रखकर खेती करने का चलन बढ़ रहा है, वैसे-वैसे बुनियादी खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ती जा रही हैं और खाद्य असुरक्षा की स्थिति पैदा हो गयी है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि देश में अन्न की कमी है। अनियंत्रित, अवैज्ञानिक ढंग से खेती करने, किसानों को सरकारी मदद के कमोबेश पूर्ण अभाव और खेती को जुआ बना देने की तमाम कोशिशों के बावजूद विशेषज्ञों का मानना है कि हजारों टन अनाज गोदामों में पड़ा सड़ जाता है और चूहों द्वारा हज़म कर लिया जाता है। इसके अलावा बड़े पैमाने पर अनाज अवैध तरीकों से विदेशों में बेचा जाता है। एक तरफ खेती योग्य जमीन का दूसरे कामों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है तो दूसरी तरफ अन्न उगाने के बजाय किसानों को नगदी फसलें उगाने का प्रलोभन भी दिया जा रहा है। देश का एक बहुत बड़ा भूभाग पहले से ही सूखे से जूझ रहा था वहीं इस साल मानसून कम होने के कारण अन्न उत्पादन और भी कम होने की आशंका है। हमारी सुजलाम सुफलाम शस्य श्यामलम धरती अंग्रेज़ शासकों द्वारा निर्मित अकालों के बाद अब देशी हुक्मरानों द्वारा निर्मित अकाल जैसी स्थिति का सामना कर रही है। आज दुनिया में सबसे ज्यादा भूखे लोग भारत में रहते हैं। देश में लगभग साढ़े इक्कीस करोड़ लोगों को भरपेट भोजन नसीब नहीं हो रहा है। इसके अलावा नीचे की एक भारी आबादी ऐसी है जिसका पेट तो किसी न किसी प्रकार भर जाता है मगर उनके भोजन से पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता। यही वह आबादी है जो फैक्टरियों-कारखानों और खेतों में सबसे खराब परिस्थितियों में सबसे मेहनत वाले काम करती है और झुग्गी-बस्तियों में और कूड़े के ढेर और सड़कों-नालों के किनारे जिन्दगी बसर करती है। कहने की जरूरत नहीं कि भूख, कुपोषण, संक्रामक रोगों, अन्य बीमारियों और काम की अमानवीय स्थितियों के कारण और साथ ही दवा-इलाज के अभाव के कारण इस वर्ग के अधिकतर लोग समय से ही पहले ही दम तोड़ देते हैं। पर्याप्त पोषण की कमी के कारण भारत के लगभग 6 करोड़ बच्चों का वज़न सामान्य से कम है। सुनकर सदमा लग सकता है कि अफ्रीका के कई पिछड़े देशों की हालत भी यहाँ से बेहतर है! दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों की एक तिहाई संख्या भारतीय बच्चों की है। देश की 50 प्रतिशत महिलाओं और 80 प्रतिशत बच्चों में खून की कमी है। डा. वन्दना शिवा का कहना है कि आर्थिक सुधारों ने खाद्य सुरक्षा को अत्यधिक प्रभावित किया है। कारपोरेट खिलाड़ियों के प्रभाव वाली गैर वहनीय कृषि को सरकार बढ़ावा दे रही है जबकि इससे छोटे किसान तबाह हो रहे हैं। उनका कहना हे कि छोटे किसान बड़े-बड़े फार्मों की अपेक्षा अधिक अन्न की पैदावार करते हैं और यदि वे तबाह होते हैं तो वे भुखमरी की कगार पर आ जाएंगे और देश भी भूखा रहेगा। गाँवों में रहने वाली देश की भारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज तबाही की कगार पर खड़ा है। पूँजी के तर्क से समझा जा सकता है कि पूँजीवाद में छोटे किसानों की तबाही अनिवार्य है। उदारीकरण की नीतियों ने इसमें और तेजी ला दी है। वहीं दूसरी तरफ यह भी सच है कि खेती के सहारे गरीब किसान अपना निर्वाह नहीं कर सकता। जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों पर खेती करने वालों की संख्या करोड़ों में है जो कहने को जमीन के मालिक हैं लेकिन खेती से उनके परिवार का पेट तक नहीं भरता। छोटे-छोटे टुकड़ों के अलग-अलग मालिकों की संपत्ति होने के कारण योजनाबद्ध ढंग से कृषि कर पाना, सिंचाई, खाद, कीटनाशक आदि की व्यवस्था कर पाना और मशीनों का प्रयोग तथा वैज्ञानिक खेती कर पाना सम्भव नहीं रह जाता। हर किसान अपनी खेती के लिए स्वयं जिम्मेदार होता है और वह किसी समूह का अंग नहीं रह जाता। एक तरफ तो वह सरकार से कोई मदद प्राप्त नहीं कर पाता है, वहीं दूसरी तरफ प्राइवेट कम्पनियों के शोषण का शिकार होता है। खेती उसके लिए गले की हड्डी बन जाती है जिसे न तो वह निगल पाता है न उगल पाता है। इसकी तुलना समाजवादी रूस और चीन की सामूहिक और कम्यून खेती से करें तो आश्चर्यजनक अन्तर दिखायी पड़ता है। सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि विश्व स्तर पर हम एक मानव निर्मित अकाल की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं! हर गुजरते दिन के साथ स्थिति और गम्भीर होती जा रही है। देश की तरक्की की सारी मलाई अमीरों द्वारा चट कर ली जा रही है जबकि उत्पादन में सबसे अधिक योगदान करने वाली तीन-चौथाई मेहनतकश आबादी भूख, कुपोषण, और बीमारियों की शिकार बन रही है। ऐसे में जर्मन कवि बेर्टोल्ट ब्रेष्ट के इन शब्दों को याद करने की ज़रूरत है
गर थाली आपकी खाली है तो सोचना होगा कि खाना कैसे खाओगे ये आप पर है कि पलट दो सरकार को उल्टा जब तक कि खाली पेट नहीं भरता...
जयपुष्प

( "बिगुल" से साभार)

Wednesday, September 2, 2009

About The "Dreaded" Stalin
-- -- by Anna Louise Strong

Source: The Soviets Expected It, The Dial Press, New York, 1941, pp. 46-64

YEARS AGO, when I first lunched with President Roosevelt just after he had seen H। G. Wells, I found that of all the subjects in the Soviet Union the one that interested him the most was the personality of Stalin and especially the technique of “Stalin’s rule.” It is a natural interest; I think it interests most Americans. The unbroken rise of Stalin’s prestige for twenty years both within the Soviet Union and beyond its borders is really worth attention by students of politics.

Yet most of the American press brags of its ignorance of Stalin by frequently alluding to the “enigmatic ruler in the Kremlin.” Cartoons and innuendo have been used to create the legend of a crafty, bloodthirsty dictator who even strives to involve the world in war and chaos so that something called “Bolshevism” may gain. This preposterous legend will shortly die. It was based on the fact that most American editors couldn’t really afford to understand the Soviet Union, and that Stalin himself was usually inaccessible to foreign journalists. Men who had hit the high spots around the world and chatted cozily with Winston Churchill, Adolf Hitler, Benito Mussolini, Franklin D. Roosevelt and even Chiang Kai-shek were irritated when Josef Stalin wouldn’t give them time. The fact of the matter was that Stalin was busy with a job to which foreign contacts and publicity did not contribute. His job, like that of a Democratic National Chairman, was organizing the ruling party and through it the country.
Since the German-Soviet war began, Stalin has become chief of the army and government. He will see more foreigners now. He made a good beginning with Harry Hopkins and W. Averell Harriman. They seem to have been impressed! I know how they were impressed for I also met Stalin. In the light of the impressions that leading Americans and Britons are now going to have of him, the legend of the inscrutable dictator will die. We may even come to hear Stalin spoken of, as a Soviet writer once described him, as “the world’s great democrat”!
When I met Stalin, I did not find him enigmatic. I found him the easiest person to talk to I ever met. He is far and away the best committee chairman of my experience. He can bring everybody’s views out and combine them in the minimum of time. His method of running committees reminded me somewhat of Jane Addams of Hull House or Lillian D. Wald of Henry Street Settlement. They had the same kind of democratically efficient technique, but they used more high pressure than Stalin did.
If Stalin has been inaccessible to foreigners—there were exceptions even to this—that does not mean that he lived in isolation, in a sort of Kremlin ivory tower. There were close to 200,000,000 people keeping him busy. He was seeing a lot of them. Not always necessarily the party leaders. A milkmaid who had broken the milking record, a scientist who had broken the atom, an aviator who flew to America, a coal miner who invented a new labor process, a workman with a housing difficulty, an engineer balked by new conditions—any person representing either a signal achievement or a typical problem might be invited by Stalin to talk it over. That was the way he got his data and kept in touch with the movement of the country.
That, I realized afterwards, was why Stalin saw me. For nearly ten years I had liked his country and tried to succeed there, for nearly two I had organized and tried to edit a little weekly newspaper for other Americans who had come to work for the Five Year Plan. And what with censorship, red tape, and what seemed the wanton emergence of another competing weekly, I wanted to give up. My editor-in-chief was practically blackmailing me that, if I resigned, he would ruin my reputation. Exhausted and angry, I was feeling trapped. A Russian friend suggested that I complain to Stalin. I did. Three days later his office called me up and suggested that I come down and talk it over with “some responsible comrades.” It was done so casually that I almost refused, for the editor-in-chief had finally agreed to my resignation and I was “through with it all.” But I felt that after sending that letter it was only polite to go.
I expected to see some fairly high official at the party headquarters, and was rather stunned when the auto drove straight to the Kremlin and especially when I entered a large conference room and saw not only Stalin rising to greet me, but Kaganovich and Voroshilov too! It seemed overwhelmingly disproportionate. Later I realized that it was not my little problem that chiefly concerned them. I was one of several thousand Americans who had begun to worry them. We had come to the Soviet Union to work in its industries. We were reasonably honest and efficient, but we couldn’t make good. Stalin wanted to know what was the matter with us in our adjustment to Soviet industry. By investigating my troubles he would learn what made us Americans click, or more often not click, in the Soviet land. But if he learned about Americans from me, I learned from him something equally important—how the Soviet Union is put together and how Stalin works.
My first impression of him was vaguely disappointing. A stocky figure in a simple suit of khaki color, direct, unassuming, whose first concern was to know whether I understood Russian sufficiently to take part in discussion. Not very imposing for so great a man, I thought. Then we sat down rather casually, and Stalin was not even at the head of the table; Voroshilov was. Stalin took a place where he could see all our faces and started the talk by a pointed question to the man against whom I had complained. After that Stalin seemed to become a sort of background, against which other people’s comments went on. The brilliant wit of Kaganovich, the cheerful chuckle of Voroshilov, the characteristics of the lesser people called to consult, all suddenly stood out. I began to understand them all and like them; I even began to understand the editor against whom I had complained. Suddenly I myself was talking and getting my facts out faster and more clearly than I ever did in my life. People seemed to agree with me. Everything got to the point very fast and smoothly, with Stalin saying less than anyone.
Afterward in thinking it over I realized how Stalin’s genius for listening helped each of us express ourselves and understand the others. I recalled his trick of repeating a word of mine either with questioning intonation or a slight emphasis, which suddenly made me feel I had either not quite seen the point or perhaps had overstated it, and so drove me to make it plainer. I recalled how he had done this to others also. Then I understood that his listening has been a dynamic force.
This listening habit dates back to the early days of his revolutionary career. “I remember him very well from the early days of our Party,” said a veteran Bolshevik to me. “A quiet youth who sat at the edge of the committee, saying almost nothing, but listening very much. Toward the end he would make a few comments, sometimes merely as questions. Gradually we came to see that he always summed up best our joint thinking.” The description will be recognized by anyone who ever met Stalin. In any group he is usually last to express his opinion. He does not want to block the full expression of others, as he might easily do by speaking first. Besides this, he is always learning by listening.
“He listens even to the way the grass grows,” said a Soviet citizen to me.
On the data thus gathered, Stalin forms conclusions, not “alone in the night,” which Emil Ludwig said was Mussolini’s way, but in conference and discussion. Even in interviews, he seldom receives the interviewer alone; Molotov, Voroshilov, or Kaganovich are likely to be about. Probably he does not even grant an interview without discussing it first with his closest comrades. This is a habit he formed very early. In the days of the underground revolutionary movement, he grew accustomed to close teamwork with comrades who held each other’s lives in their hands. In order to survive, they must learn to agree quickly and unanimously, to feel each other’s instincts, to guess even at a distance each other’s brains. It was in such a group that he gained his Party name—it is not the one that he was born with—“the Steel One, Stalin.”
If I should explain Stalin to politicians, I should call him a superlatively good committeeman. Is this too prosaic a term for the leader of 200,000,000 people? I might call him instead a farseeing statesman; this also is true. Put more important than Stalin’s genius is the fact that it is expressed through good committee work. His talent for co-operative action is more significant for the world than the fact that he is great.
Soviet people have a way of putting it which sounds rather odd to Americans. “Stalin does not think individually,” they say. It is the exact opposite of the “rugged individualist” ideal. But they mean it as the very highest compliment. They mean that Stalin thinks not only with his own brain but in consultation with the brains of the Academy of Science, the chiefs of industry, the Congress of Trade Unions, the Party leaders. Scientists use this way of thinking; so do good trade unionists. They do not “think individually”; they do not rely on the conclusions of a single brain. It is a highly useful characteristic, for no single human brain today is big enough to decide the world’s complex problems. Only the combination of many brains thinking together, not in conflict but in co-operation, can safely handle the problems of today.
Stalin himself has said this a score of times to various interviewers. When Emil Ludwig and, later, Roy Howard sought to learn “how the great dictator made up his mind,” Stalin told them: “Single persons cannot decide. Experience has shown us that individual decisions, uncorrected by others, contain a large percentage of error.”
Soviet people never speak of “Stalin’s will” or “Stalin’s orders”; they speak of “government orders” and “the Party line,” which are decisions produced collectively. But they speak very much of “Stalin’s method” as a method that everyone should learn. It is the method of getting swift decisions out of the brains of many people, the method of good committee work. It is studied carefully in the Soviet Union by bright young men who go in for politics.
For me, the method was emphasized again in the days that immediately followed that first conference. It had seemed to me that Stalin, Voroshilov, Kaganovich, and everybody else had agreed on a certain action. Then the days went by and frothing happened, till the conference seemed almost a dream. I confided my worry to a Russian acquaintance. He laughed.
“That is our ‘terrible democracy,’” he told me. “Of course, your affair is really settled, but technically it must be approved by all the members of the Political Bureau, some of whom are in the Caucasus and some in Leningrad. It will go as routine with a lot of other decisions and none of them will bother about your question because they know nothing about it. But this is our usual safeguard for anyone of the members may wish to add or change something in some decision. That decision will then go back to committee till all are satisfied.”
Stalin brings certain important qualities to these joint decisions. People who meet him are first of all impressed by his directness and simplicity, his swift approach. Next they notice his clearness and objectivity in handling questions. He completely lacks Hitler’s emotional hysteria and Mussolini’s cocky self-assertion; he does not thrust himself into the picture. Gradually one becomes aware of his keen analysis, his colossal knowledge, his grip of world politics, his willingness to face facts, and especially his long view, which fits the problem into history, judging not only its immediate factors, but its past and future too.
Stalin’s rise to power came rather slowly. The rise of his type is slow and sure. It began far back with his study of human history and especially the history of revolutions. President Roosevelt commented to me with surprise on Stalin’s knowledge of the Cromwellian Revolution in Britain as shown in his talk with H. G. Wells. But Stalin quite naturally studied both the British and the American historical revolutions far more intimately than British and American politicians do. Tsarist Russia was due for a revolution. Stalin intended to be in it and help give it form. He made himself a thorough scientist on the process of history from the Marxian viewpoint: how the masses of people live, how their industrial technique and social forms develop, how social classes arise and struggle, how they succeed. Stalin analyzed and compared all past revolutions. He wrote many books about them. But he is not only a scientist; he also acts.
In the early days of the Revolution, Stalin’s name was hardly known outside the Party. In 1923, during Lenin’s last illness, I was told by men whose judgment I trusted that Stalin was “our coming man.” They based this on his keen knowledge of political forces and his close attention to political organization as secretary of the Communist Party. They also based it on his accurate timing of swift action and said that thus far in the Revolution he hid not once guessed wrong. They said that he was the man to whom “responsible Party men” turned for the clearest statement of what they all thought., In those days Trotsky sneered at Stalin as the “most average man” in the Party. In a sense it was true. Stalin keeps close to the “average man”; the “average man” is the material of politics. But Stalin does it with a genius that is very far from average.
“The art of leadership,” said Stalin once, “is a serious matter. One must not lag behind the movement, because to do so is to become isolated from the masses. But one must not rush ahead, for this is to lose contact with the masses.” He was telling his comrades how to become leaders; he was also expressing his own ideal, which he has very effectively practiced.
Twenty years ago in the Russian civil war, Stalin’s instinct for the feeling of the common people more than once helped the Soviet armies to victory. The best known of these moments was the dispute between Stalin and Trotsky about an advance through the North Caucasus. Trotsky wanted to take the shortest military route. Stalin pointed out that this shortcut lay across the unfriendly lands of the Cossacks and would in the end prove longer and bloodier. He chose a somewhat roundabout way through working-class cities and friendly farming regions, where the common people rose to help the Red Armies instead of opposing them. The contrast was typical; it has been illustrated since then by twenty years of history. Stalin is completely at home in the handling of social forces, as is shown by his call today for a “people’s war” in the rear of the German Armies. He knows how to arouse the terrible force of an angry people, how to organize it and release it to gain the people’s desires.
The outside world began to hear of Stalin in the discussions that preceded the first Five Year Plan. (I wrote an article some five years earlier, predicting his rise as Lenin’s successor, but the article went unnoticed; it was several years too soon.) Russian workers outside the Communist Party began to think of Stalin as their leader during the first spectacular expansion of Soviet industry. He first became a leader among the peasants in March, 1930, through his famous article, “Dizziness from Success,” in which he checked the abuses that were taking place in farm collectivization. I have described its effect on the rural districts in the preceding chapter. I remember Walter Duranty waving that article at me and saying, “At last there is a leader in this land!”
Stalin’s great moment when he first appeared as leader of the whole Soviet people was when, as Chairman of the Constitutional Commission, he presented the new Constitution of the Socialist State. A commission of thirty-one of the country’s ablest historians, economists, and political scientists had been instructed to create “the world’s most democratic constitution” with the most accurate machinery yet devised for obtaining “the will of the people.” They spent a year and a half in detailed study of every past constitution in the world, not only of governments but of trade unions and voluntary societies. The draft that they prepared was then discussed by the Soviet people for several months in more than half a million meetings attended by 36,500,000 people. The number of suggested amendments that reached the Constitutional Commission from the popular discussions was 154,000. Stalin himself is known to have read tens of thousands of the people’s letters.
Two thousand people sat in the great white hall of the Kremlin Palace when Stalin made his report to the Congress of Soviets. Below me, where I sat in the journalists’ box, was the main floor filled with the Congress deputies; around me in the loges sat the foreign diplomatic corps; behind me, in a deep gallery, were citizen-visitors. Outside the hall tens of millions of people listened over the radio, from the southern cotton fields of Central Asia to the scientific stations on the Arctic coast. It was a high point of Soviet history. But Stalin’s words were direct and simple and as informal as if he sat at a fireside talking with a few friends. He explained the significance of the Constitution, took up the suggested amendments, referred a large number of them to various lawmaking bodies and himself discussed the most important. He made it plain that everyone of those 154,000 suggestions had been classified somewhere and would influence something.
Among the dozen or more amendments which Stalin personally discussed, he approved of those that facilitated democratic expression and disapproved of those that limited democracy. Some people felt, for instance, that the different constituent republics should not be granted the right to secede from the Soviet Union; Stalin said that, while they probably would not want to secede, their right to do so should be constitutionally guaranteed as an assertion of democracy. A fairly large number of people wanted to refuse political rights to the priests lest they influence politics unduly. “The time has come to introduce universal suffrage without limitations,” said Stalin, arguing that the Soviet people were now mature enough to know their own minds.
More important for us today than constitutional forms, or even the question of how they work, was one very significant note in Stalin’s speech. He ended by a direct challenge to the growing Nazi threat in Europe. Speaking on November 25, 1936, before Hitlerism was seriously opposed by any European government, Stalin called the new Soviet Constitution “an indictment against Fascism, an indictment which says that Socialism and Democracy are invincible.”
In the years since the Constitutional Congress, Stalin’s own personality began to be more widely known. His picture and slogans became so prominent in the Soviet Union that foreigners found this “idolatry” forced and insincere. Most Soviet folk of my acquaintance really do feel tremendous devotion to Stalin as the man who has built their country and led it to success. I have even known people to make a temporary change of residence just before election day in order to have the chance to vote for Stalin directly in the district where he was running, instead of for the less exciting candidate from their own district.
No information about Stalin’s home life is ever printed in Soviet newspapers. By Russian tradition, everybody, even a political leader, is entitled to the privacy of his personal life. A very delicate line divides private life from public work. When Stalin’s wife died, the black-bordered death notices in the paper mentioned her by her own name, which was not Stalin’s, listed her work and connection with various public organizations, and the fact that she was “the friend and comrade of Stalin.” They did not mention that she was his wife. The fact that she worked with him and might influence his decisions as a comrade was a public matter; the fact that she was married to him was their own affair. Some time later, he was known to have married again, but the press never mentioned it.
Glimpses of Stalin’s personal relations come chiefly through his contacts with picturesque figures who have helped make Soviet history. Valery Chkalov, the brilliant aviator who made the first flight across the North Pole from Moscow to America, told of an afternoon that he spent at Stalin’s summer home from four o’clock till after midnight. Stalin sang many Volga songs, put on gramophone records for the younger people to dance, and generally behaved like a normal human being relaxing in the heart of his family. He said he had learned the songs in his Siberian exile when there wasn’t much to do but sing.
The three women aviators who broke all world records for women by their spectacular flight from Moscow to the Far East were later entertained at an evening party at the Kremlin in their honor. One of them, Raskova, related afterwards how Stalin had joked with them about the prehistoric days of the matriarchate when women ruled human society. He said that in the early days of human development women had created agriculture as a basis for society and progress, while men “only hunted and went to war.” After a reference to the long subsequent centuries of woman’s slavery, Stalin added, “Now these three women come to avenge the heavy centuries of woman’s suppression.”
The best tale, I think, is that about Marie Demchenko, because it shows Stalin’s idea of leaders and of how they are produced. Marie was a peasant woman who came to a farm congress in Moscow and made a personal pledge to Stalin, then sitting on the platform, that her brigade of women would produce twenty tons of beets per acre that year. It was a spectacular promise, since the average yield in the Ukraine was about five tons. Marie’s challenge started a competition among the Ukrainian sugar beet growers; it was featured by the Soviet press. The whole country followed with considerable excitement Marie’s fight against a pest of moths. The nation watched the local fire department bring twenty thousand pails of water to the field to beat the drought. They saw that gang of women weed the fields nine times and clear them eight times of insects. Marie finally got twenty-one tons per acre, while the best of her competitors got twenty-three.
That harvest was a national event. So Marie’s whole gang went to Moscow to visit Stalin at the autumn celebration. The newspapers treated them like movie stars and featured their conversation. Stalin asked Marie what she most wanted as a reward for her own good record and for stirring up all the other sugar beet growers. Marie replied that she had wanted most of all to come to Moscow and see “the leaders.”
“But now you yourselves are leaders,” said Stalin to Marie.
“Well, yes,” said Marie, “but we wanted to see you anyway.” Her final request, which was granted, was to study in an agricultural university.
When the German war was launched against the Soviet Union, many foreigners were surprised that Stalin did not make a speech to arouse the people at once. Some of our more sensational papers assumed that Stalin had fled! Soviet people knew that Stalin trusted them to do their jobs and that he would sum the situation up for them as soon as it crystallized. He did it at dawn on July 3 in a radio talk. The words with which he began were very significant.
“Comrades! Citizens!” he said, as he has said often. Then he added, “Brothers and Sisters!” It was the first time Stalin ever used in public those close family words. To everyone who heard them, those words meant that the situation was very serious, that they must now face the ultimate test together and that they must all be closer and dearer to each other than they had ever been before. It meant that Stalin wanted to put a supporting arm across their shoulders, giving them strength for the task they had to do. This task was nothing less than to accept in their own bodies the shock of the most hellish assault of history, to withstand it, to break it, and by breaking it save the world. They knew they had to do it, and Stalin knew they would.
Stalin made perfectly plain that the danger was grave, that the German armies had taken most of the Baltic states, that the struggle would be very costly, and that the issues were between “freedom or slavery, life or death to the Soviet State.” He told them: “The enemy is cruel and implacable. He is out to seize our lands, watered with our sweat . . . to convert our peoples into the slaves of German princes and barons.” He called upon the “daring initiative and intelligence that are inherent in our people,” which he himself for more than twenty years had helped to create. He outlined in some detail the bitter path they should follow, each in his own region, and said that they would find allies among the freedom-loving peoples of the world. Then he summoned them “forward—to victory.”
Erskine Caldwell, reporting that dawn from Moscow, said that tremendous crowds stood in the city squares listening to the loud speakers, “holding their breath in such profound silence that one could hear every inflection of Stalin’s voice.” Twice during the speech, even the sound of water being poured into a glass could be heard as Stalin stopped to drink. For several minutes after Stalin had finished the silence continued. Then a motherly-looking woman said, “He works so hard, I wonder when he finds time to sleep. I am worried about his health.”
That was the way that Stalin took the Soviet people into the test of war.

Thursday, August 20, 2009

अकाल, बाढ़, सुखाड़, बेकारी और गरीबी प्राकृतिक नही, मानव-निर्मित आपदा व व्यवस्थाजनित विभीषिका है. इन्हें पैदा करने वाली व्यवस्था को बदलना होगा

इस वर्ष पुरा देश अकाल की चपेट में आ गया है। मानसून ने दगा दिया नहीं कि हम पर अकाल का साया मंडराने लगा। आज़ादी के ६२ सालों बाद भी मानसून पर वही पुरानी निर्भरता बनी हुई है जो शर्म की बात है। सिर्फ एक इसी मामले में नहीं, जनता की सभी बुनियादी समस्यायों तथा ज्वलंत सवालों जैसे - शिक्षा, आवास, स्वास्थय और रोजगार आदि के बारे में भी यही बात की जा सकती है। तिस पर बिहार जैसे गरीब और पिछड़े राज्यों की गरीब जनता की बदहाल स्थिति की कल्पना आसानी से की जा सकती है। बिहार एक ऐसा राज्य है जहाँ की जनता पिछले छ: दशक से प्रत्यक वर्ष बाढ़ या तो सुखाड़ से तबाह और बरबाद होती आ रही है। प्रत्यक वर्ष लाखों गरीब और मजदूर लोग दाने-दाने के मोहताज़ हो जाते हैं। भारत के शासक-शोसक वर्गों से यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि देश के गरीब मेहनतकश अवाम के लिए आज तक उन्होंने क्या किया है। उल्टे, ये जनता को कभी भाग्य की घुट्टी पिलाते रहते हैं, जाति और धर्मं के बेकार के मसलों में उलझाये रखने की कोशिश में लगे रहते हैं, तो कभी झूठे वायदों और ऐसी बातों में उलझाए रखना चाहते हैं जिससे जनता शासक वर्गों द्वारा लागू की जा रही नीतियों पर सवाल न उठा सके। सबसे शर्मनाक बात यह है कि हमारे शासक आज़ादी के ६२ सालों बाद आज भी हमें मुर्ख बनने वाला वही पुराना पाठ बताते रहते हैं कि "बाढ़-सुखाड़ एक प्राकृतिक विभीषिका है" जिसका अर्थ यही निकलता है कि इसमे सरकार के लिए करने को कुछ नहीं है।
हद तो यह हो गई है कि इस बार के अकाल, सुखाड़ और पिछले दो दशक से साम्राज्यवादी वैश्वीकरण से प्रेरित नवउदारवादी नीतियों को लागू करने के फलस्वरूप पूरे विश्व में पैदा हुए आर्थिक संकट व मंदी के कारण पूरे देश में फैली बेकारी-भूखमरी को भी इसी तरह से धार्मिक और प्राकृतिक प्रकोप बताकर जनता को एक बार फिर से वेवकूफ बनाने की कोशिश की जा रही है। अकाल, भुखमरी, बेकारी और सुखाड़ आदि से इमानदारी से और सफलतापूर्वक निबटने में अपनी अक्षमता को और वर्तमान व्यवस्था के शोषणकारी चरित्र को जनता की नजर से छुपाने के लिए और आम जन को भरमाये रखने के लिए बिहार के हमारे नेताओं ने एक अजीबोगरीब बात और बहस शुरू कर दी है। इसमें सबसे आगे हैं कभी ब्राह्मणवाद और अन्धविश्वास से लड़ने की बड़ी-बड़ी बात करने वाले हमारे नेता लालू प्रसाद जी, जो इन दिनों खुलेआम बिहार की गरीब जनता के बीच अन्धविश्वास और भाग्यवाद फैलाने का काम कर रहे हैं। लालू जी कह रहे हैं कि बिहार में अकाल इसलिए आया है क्योंकि (मुख्यमंत्री) नीतिश कुमार जी ने सूर्यग्रहण के दिन बिस्कुट खाया था। आज उन्होंने कहा है कि हमें एक दिन उपवास रखना चाहिए और अनाज की बचत करनी चाहिए। लालू जी यह सलाह किसे दे रहे हैं? क्या उनको, उन गरीबों और मेहनतकश अर्ध बेकार मजदूरों को, जो प्रायः भरपेट खाना खाए ही सो जाते हैं? गरीबों के घर में अनाज ही नहीं है तो उनके उपवास का और बचत का क्या अर्थ हो सकता है? इसका तो सवाल ही पैदा नही होता है। तो क्या लालू जी उनकी बात कर रहे हैं जिनके पास अनाज और पैसा दोनों हैं? क्या आज उनकी ऐसी स्थिति हो गई है कि वे गरीबों को प्रभावित करने और आने वाले चुनाव में गरीबों की सहानुभूति लेने इतनी उलजलूल बात कर रहे हैं? क्या वे इतना भी नही जानते हैं कि जिनके पास अतिरिक्त अनाज है वे बाज़ार में उसे ले जाकर बेचेंगे और मुनाफा कमाएंगे न कि इससे गरीबों को फायदा होगा ! अनाज की जमाखोरी कराने वालों का तो नाम लेना भी उन्होंने गंवारा नहीं समझा ! जाहिर वे जनता को इन सबके लिए संघर्ष करने के लिए तो कह सकते नहीं, न ही वे सरकार से यह मांग ही कर सकते हैं कि जमाखोरों के पास जमा अनाज को तुंरत जब्त किया जाए। तब जनता को भाग्यवादी बनाने के अलावा इनके पास और रास्ता भी क्या है।
परंतु, इससे यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि अन्य नेतागण वैज्ञानिक सोच-विचार के स्वामी हैं। चाहे नीतिश जी हों या कोई और, वे सभी के सभी भाग्यवादी हैं। अगर वे अपने स्वयं के जीवन में भाग्यवादी न भी हों तब भी वे जनता को भाग्यवादी बनाने में पीछे नहीं हैं। सभी पूंजीवादी नेताओं को पता है कि अगर जनता भाग्य को छोड़ अपनी समस्याओं के असली कारण को पहचानने लगेगी, तो न तो यह राज रहेगा न इनका यह तख्तोताज रहेगा!!!!
वैसे यह बात पूरी तरह सच है कि भाग्यवाद फैलाना अकेले लालू जी की जरूरत नहीं है, पूरी की पूरी पूंजीवादी व्यवस्था इसी में लगी हुई है। जिस तरह से और जितनी मात्र में पूंजीवादी व्यवस्था मानवद्रोही, आदमखोर और हत्यारिन बन चुकी है उसे देखते हुए कोई भी कह सकता है कि यह एकमात्र इसीलिए और तभी तक टिकी हुई है जबतक कि जनता की बहुसंख्या असली राजनितिक स्थिति के बारे में अनभिज्ञ है और जागरूक नही बनी है। जिस दिन जनता राजनितिक रूप से जागरूक हो जायेगी, उसी दिन इस व्यवस्था का ठीक उसी तरह सत्यानाश हो जायेगा जिस तरह खून चूसने वाली व्यस्वस्थायों का दुनिया में हर जगह हुआ है। और, यह बात सिर्फ हम जानते हैं सो बात भी नहीं है, उल्टे, हमारे शोषक-शासक भी इस बात को अच्छी तरह जानते है। तभी तो वे इस कोशिश में हर दम लगे हैं कि आम जनता को मूर्ख बनाकर रखा जाए चाहे जैसे भी हो। हालांकि यह भी सच है कि वे अंततः इसमे सफल नहीं होंगे और जनता एक-न-एक दिन अपने भाग्य का फैसला स्वयं करने निकल पड़ेगी।
आज की पूंजीवादी समाज-व्यवस्था न तो सभ्यता के विकास में सहायक है और न ही वह संस्कृति और वैज्ञानिक सोच विकसित करने में ही सक्षम है। उल्टे इन सबके विकास में यह आज रोड़ा बना हुआ है। पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था के सारे अंतर्विरोध आज भयंकर रूप से काम कर रहे हैं। इसकी अतार्किकतायें आज समग्र रूप में प्रकट हो चुकी हैं। इसके बाह्य रूप (तथाकथित जनतंत्र) और इसके अन्तर्य (एकाधिकार और स्वतंत्रता विरोधी चरित्र) के बीच का अंतर्विरोध बिल्कुल खुले में आ चुका है। कंगाली और दारिद्रय के महासमुद्र में अखंड-अंतहीन ऐश्वर्य और आधिक्य के छोटे-छोटे टापू --- यही आज की सर्वत्र रूप से पायी जाने वाली सर्वजनीन सच्चाई बन गई है। परंतु, इन सबकी चेतना व्यापक जनता खासकर मजदूर वर्ग और मेहनतकश लोगों के बीच अभी तक नहीं पहुँची है। दूसरे, एक तरफ विश्वव्यापी आर्थिक संकट की मार है तो दूसरी तरफ अकाल का दानव जनता के समक्ष आ खडा हुआ है। बड़े पैमाने हुई बेकारी से लोगों का जीवन अत्यन्त ही कठिन हो गया है। आम जनों के बीच अपने भविष्य को लेकर गहरी निराशा व्याप्त हो गई है। सही राजनितिक चेतना में कमी की वजह से उनकी परेशानियों के लिए असली रूप में जिम्मेवार पूंजीवादी व्यवस्था उनकी नजर और कल्पना से बहार है। आम लोगों को अपने पूर्व जीवन के पाप तो दिखाई पड़ते हैं, जिन्हें वे आज के अपने दुखों के लिए जिम्मेवार मानते हैं, किंतु उन्हें आज की पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा किए जा रहे पाप नजर नहीं आ रहे हैं। वे आज भी भाग्यवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद और दुनिया भर के अंधविश्वासों में पड़े हुए हैं। आज की पूंजीवादी व्यवस्था के लिए यह एक वरदान से कम नहीं।
इसके अतिरिक्त पूंजीवाद 'जनतंत्र' के जिस राजनितिक खोल में काम करता है, वह भी जनता को भ्रम में डाले रहता है, वह उजरत गुलामी को आज़ादी के उपरी अहसास से ढंके रहता है। सरकार चुनने में जनता के वोट की 'अहमियत' से भी आज़ादी और स्वतंत्रता का अहसास होता है। यह एक हद तक सही भी है। गुलाम समाज या सामंती समाज की तुलना में यह व्यवस्था सचमुच ही आज़ादी प्रदान करती है। परंतु, समझने की बात यह है कि यह आज़ादी हमेशा कटी-छंटी और आधी-अधूरी होती है, क्योंकि 'जनतंत्र' के परदे के पीछे पूंजी की सर्वशक्तिमत्ता काम कराती है और पूंजी की ताकत ही मुख्या चीज़ होती है। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि स्वयं 'ख़ुद से सरकार चुनने वाली' गरीब जनता को यह अहसास होता है कि इस समाज में मानों कोई अदृश्य शक्ति है जो उनके पक्ष में नहीं है, और, जो कुछ दूसरे लोगों को अमीर बनाए हुए है। परदे के पीछे से काम करने वाली पूंजी कि सर्वशक्तिमत्ता ही वह अदृश्य शक्ति है जो हमारे समाज में वास्तविक रूप से राज करती है। पूंजीवादी कार्यपद्धति के ज्ञान का अभाव इस विश्वास को और पुष्ट बनाता है कि जनता की परेशानियों के पीछे जरूर कोई अलौकिक अदृश्य शक्ति जो उनके जीवन पर राज करती है। आदमी को अज्ञान उसे भाग्यवादी बनाता है। परंतु, इस अज्ञानता की भी एक सीमा है। यह हमेशा और अनवरत बने रहने वाली चीज नहीं है। स्वयं पूंजीवादी शोषण जनता को जागरूक करेगी, जागरूक बना रही है। पूंजीवाद जनता की तकलीफें बढ़ा रहा है, तो साथ में यह आम लोगों को जगा भी रहा है, पूंजीवाद के विरूद्व उन्हें स्वतः रूप से संगठित भी कर रहा है। यह कहावत सच है कि जब दर्द हद से ज्यादा बढ़ जाता है तो दवा बन जाता है। पूंजीवादी व्यवस्था के साथ यही कहावत चरितार्थ हो रही है।

Saturday, August 15, 2009

"ऐसी आज़ादी का हमारे लिए आख़िर क्या मतलब है?" --- एक मजदूर द्वारा प्रेषित ब्लॉग

मजदूरों -मेहनतकशों के लिए इस आज़ादी का आख़िर क्या अर्थ है? हम मजदूर तो उजरती गुलाम हैं फिर आज़ादी कैसी, स्वतंत्रता कैसी? हमें १५ अगस्त १९४७ को अंग्रेजों से मुक्ति मिली यह खुशी की बात है, परंतु, हमें और हमारे देश को साम्राज्यवाद से मुक्ति कहाँ मिली? आज़ादी के बाद भी हमारा देश साम्राज्यवाद के चंगुल से मुक्त नहीं हुआ है यह सच है।जहाँ तक हमारी बात है, हम जिस आजाद देश में रह रहे हैं वह एक पूंजीवादी जनतांत्रिक देश है। इसका अर्थ यह है कि हमारे देश की आर्थिक व्यवस्था पूंजीवादी है। पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था के लिए यह जरूरी है कि समाज में एक ऐसा तबका मौजूद हो जो जीवनयापन के अपने साधनों-संसाधनों से पूरी तरह अलग/वंचित हो गए हो और एकमात्र अपनी श्रम शक्ति को बेचकर ही जिन्दा रह सकता हो। दूसरे शब्दों में, पूंजीवाद में सर्वहारा वर्ग की मौजूदगी एक पूर्वशर्त है जिसके बिना पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था चल ही नहीं सकती है। दूसरी तरफ, एक मजदूर जो एकमात्र अपनी श्रम शक्ति बेचकर ही स्वयं अपने और अपने परिवार का पेट भर सकता है, वह अपनी श्रम शक्ति एक पूंजीपति को बेचता है। वह मजदूर निश्चय ही इस मायने में स्वतंत्र है कि वह चाहे तो अपनी श्रम शक्ति न बेचे, इसके लिए कोई इसे मजबूर नहीं करता है, या, इस पूंजीपति को नहीं उस पूंजीपति को बेचे। याने, उसे जहाँ मन करे अपने को बेचे। ऊपर से देखने पर यह देखने में स्वतंत्रता और आज़ादी के रूप में हमें दिखाई दित है। परंतु, एक सर्वहारा मजदूर, जिसके पास जीने का और कोई दूसरा साधन नहीं होता है, अगर अपना श्रम नहीं बेचेगा तो उसे और उसके परिवार को भूखा रहना पड़ेगा। वह सिर्फ कहने को ही आजाद है, असल में तो वह गुलाम है। जब वह किसी पूंजीपति से अपनी श्रम शक्ति के मूल्य को लेकर मोल-भाव करता है, तो पूंजीपतिवर्ग को मजदूर वर्ग की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का पूरा ज्ञान होता है। जाहिर है अगर किसी समाज में गरीबों और मजबूरों की संख्या बढ़ती है और ज्यादा से ज्यादा लोगों का पूंजीवादी सम्पतिहरण हो रहा हो और दूसरे लोग भी सर्वहारा की पांतों में शामिल हो रहे हों, तो श्रम आधिक्य की स्थिति बनती है, जिससे श्रम बाज़ार में श्रम की कीमत में और भी ह्रास होता है। एक ही काम के लिए कई सौ हज़ार मजदूर पंक्ति में खड़े हों तो पूंजीपति वर्ग के लिए मजदूरों के शोषण के और भी बेहतर मौके मिलने लगते हैं। इसीलिए तो कहा जाता है कि पूंजीवादी विकास, याने, पूंजीवादी संचय और केन्द्रीकरण के नियम प्रतिदिन निम्न पूंजीपति वर्ग के एक हिस्से का सम्पतिहरण करता रहते है। इन सबके परिणामस्वरूप समाज के एक छोर पर मुठ्ठी भर लोगों (पूंजीपतियों) के पास वैभव का अम्बार पैदा हो रहा है, तो वही दूसरी तरफ, गरीबों-मजलूमों की एक बड़ी फौज खड़ी होती जा रही है। क्या ऐसी स्थिति में यह आज़ादी हम जैसे लोगों - मजदूरों व मेहनतकशों के लिए वास्तव में कोई मायने रखता है? (edited to some extent by the editor of this blog)

Wednesday, August 12, 2009

वर्त्तमान जानलेवा महंगाई के खिलाफ आवाज उठाना होगा, इसे पैदा करने वाली व्यवस्था को समझना होगा.

आज इससे किसी को इनकार नहीं हो सकता है कि वर्त्तमान महंगाई से खासकर असंगठित क्षेत्र के मजदूरों, मेहनतकश गरीब जनता और निम्न-मध्य वर्ग के लोगों की जिंदगियां लहूलुहान हो गई हैं। उस पर अतिअल्पवृष्टि के कारण देश में छाये सुखाड़जनित अकाल ने महंगाई से त्रस्त आम जनों की स्थिति को अत्यधिक रूप से भयावह बना दिया है। शोषण, लूट और भ्रस्टाचार की कमाई पर मौज मस्ती करने वाले लोगों और थैलीशाहों - नौकरशाहों आदि को भला महंगाई की मार का क्या पता होगा? असंगठित क्षेत्र के कामगारों और बेरोजगारों से जाकर कोई पूछे तो पता चलेगा कि उनकी तो पूरी जिंदगी ही लहूलुहान हो गई है। ऐसी स्थिति में इसके मूल कारणों पर विचार करना जरूरी है।
हम अगर गौर करें तो पाएंगे कि वर्त्तमान महंगाई का सीधा रिश्ता पूंजीवादी व्यवस्था और इसके तहत चलने वाली सरकारों की नवउदारवादी साम्राज्यपरस्त नीतियों से है। चाहे बीजेपीनीत सरकार हो या फिर कांग्रेसनीत सरकार हो सभी ने वैश्वीकरण, नवउदारीकरण व निजीकरण की नीतियों को आगे बढाया है। इसके फलस्वरूप पिछले दो दशकों के दौरान कृषि में निवेश लगातार घटा, कृषि में लगाने वाले सामानों (खाद, बीज, कीटनाशक आदि) पर से सब्सिडी हटता गया, बाज़ार की शक्तियों को मुक्त किया गया और बड़ी कंपनियों को कृषि में आमंत्रित किया गया। इसी के साथ विश्व व्यापार संगठन के प्राबधानों को मानते हुए सरकारी नीतियों को इस तरह बनाया गया जिससे कृषि उत्पादों के दामों को अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार से जोड़ने का रास्ता प्रशस्त हुआ। देशी कृषि उत्पादों के दाम धीरे-धीरे अंतर्राष्ट्रीय दाम के साथ जुड़ते गए। इसके फलस्वरूप कृषि उत्पादों के दामों में जबर्दस्त उतार-चढाव आने लगा। इस तरह कृषि विश्व बाज़ार के संकटों से जुड़ती चली गई। इस परिदृश्य का सबसे खतरनाक पहलू यह बना कि कृषि से जुड़ी मेहनतकश आबादी की स्थिति बिगड़ने लगी और कृषि विकास दर गिरने लगा। यह परिदृश्य पिछले कई वर्षों से बना हुआ है। स्थिति ऐसी बना दी गई जिसमें कृषि में विविधिकरण सरकार का मुख्य मुद्दा बन गया। खाद्य सुरक्षा का प्रश्न गौण होता गया। सरकार शुरू से यह तर्क देने की कोशिश करती रही है कि विविधिकरण से किसान खुशहाल होंगे और यह कहा गया कि अनाज की कमी होने पर अनाज विदेशों से मांगा लिया जाएगा। हम जानते हैं कि पिछले वर्षों के दौरान विश्व बाज़ार में खाद्यानों के दामों में बेतहाशा वृद्धि हुई। इससे भारत में भी खाद्यानों के दामों पर असर पड़ा। आज जब महंगाई के कारण आबादी की एक बड़ी संख्या खाद्य असुरक्षा से पीड़ित है, सरकार जनता को झांसा देने के लिए खाद्य सुरक्षा कानून लाने की बात कर रही है लेकिन जिसके लिए कोई वित्तीय प्राबधान नहीं किया गया है। ज्ञातव्य हो कि अगर यह कानून लागू भी हो जाए, तब भी आबादी की एक छोटी संख्या ही इससे लाभान्वित होगी। वैसे हम सभी जानते हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था में कानून लागू होने से ज्यादा आम अवाम को झांसा देने के काम ज्यादा आता है।

JUST THINK HOW CAPITALISM OF TODAY WORKS FROM BEHIND THE SCENE!

An article in Sunday's New York Times on the behind-the-scenes dealings between Henry Paulson, treasury secretary under President George W. Bush, and Goldman Sachs, the giant investment bank Paulson headed before joining the Bush administration, sheds a measure of light on the corrupt relationship between government officials and the banks (finance capital). One might be knowing that this involved the multi-trillion-dollar bailout of Wall Street.
The article is based on Paulson’s official schedules for 2007 and 2008.It focuses on mid-September of 2008, the high point of the crisis, when the government decided to allocate $85 billion to bail out the failing insurance and financing firm American International Group (AIG). The article exposes how the rescue of AIG was a decision to use taxpayer funds to cover dollar for dollar the billions owed by the insurance firm to Wall Street banks that held credit default swap contracts with AIG. Credit default swaps is central to erecting the vast edifice of speculation. This is the secret how banks reap huge profits and reward their top executives and traders with multi-million-dollar bonuses and pay packages.
Credit default swap market are largely unregulated and banks and corporations purchase insurance against these default of bonds issued by other banks and companies. One should know that the AIG was by far the biggest seller of such swaps. If it goes bankrupt, its counterparties will have to stand to lose billions and go bankrupt themselves.This was precisely the position of major financial firms in September of 2008, when AIG was teetering on the brink of collapse. At this time Goldman, the biggest and the most profitable wall street investment houses, and Morgan Stanely both were such counterparties and “were in danger themselves of failing later in the week...” Goldman stood to lose $13 billion in credit default swaps and other derivative contracts with AIG. The Times article has documented documents the fact that "Paulson, who by law and ethics rules was prohibited from maintaining undue contact with his former bank, held dozens of telephone discussions with Blankfein on and around September 16, 2008, when Paulson and the Federal Reserve Board announced the bailout of AIG."
The Times writes that Paulson and his collaborators in orchestrating the bank bailout (that includes Federal Reserve Board Chairman Ben Bernanke and Timothy Geithner, then president of the Federal Reserve Bank of New York and now Obama’s treasury secretary) were well aware of the legal implications of Paulson’s role in rescuing Goldman with public funds. To provide themselves with a legal fig leaf, as the Times reports, Paulson obtained two ethics waivers on September 17, shortly before a conference call involving himself, Bernanke, Geithner and other bank regulators to discuss the financial crisis of Goldman, Merrill Lynch and Morgan Stanley. The waivers were issued by Paulson’s Treasury Department and the Bush White House counsel’s office.
The newspaper writes "prior to receiving any waivers, Paulson played a key role in decisions that disproportionately benefitted his former bank. In addition to covering Goldman’s bad debts with AIG, these included the elimination of Goldman rivals Bear Stearns and Lehman Brothers (and subsequently Merrill Lynch), allowing Goldman to legally convert from an investment bank to a commercial bank—giving it more access to federal financing—and a Security and Exchange Commission ruling barring investors from betting against Goldman stock by selling it short.
On the basis of such measures—and trillions of dollars in cash, virtually free loans, debt guarantees and other taxpayer subsidies— which have been continued and expanded by the Obama administration, major Wall Street banks have registered substantial profits this year and allocated massive, in some cases record, sums to provide their top executives and traders with seven and eight-figure compensation packages.
None has done better than Goldman, which recently reported a record second-quarter profit of $3.44 billion and is on track to award its employees a record $22 billion in bonuses and salaries this year. This is the moral, political and social ethics of the age dominated by capitalism and Imperialism where finance capital has clear sway in all matters.
Sunday’s Times article suggests that, in addition to legal and ethics violations, Paulson may have perjured himself in testimony last month before a committee of the House of Representatives. Challenged on possible conflicts of interest in his dealings with AIG and Goldman, the former treasury secretary told the committee, “I want you to know that I had no role whatsoever in any of the Fed’s decisions regarding payments to any of AIG’s creditors or counterparties.”
But the newspaper cites unnamed former government officials as saying, “Mr. Paulson played a major role in the AIG rescue discussions over that weekend [September 13-14, 2008] and it was well known among the participants that a loan to AIG would be used to pay Goldman and the insurer’s other trading partners.”
The newspaper omits mention of a further damning fact. Paulson, who, the Times notes, personally fired the CEO of AIG, appointed Edward M. Liddy as his replacement. According to Wikipedia, the man selected by Paulson to oversee the funneling of taxpayer cash from AIG to Goldman and other AIG creditors “was on the board of directors of Goldman from 2003 to 2008, when he resigned to become CEO of AIG. He was selected by Henry Paulson for both roles.” Liddy, who has since resigned his AIG post, owns more than 27,000 shares in Goldman Sachs worth over $3 million.
Reflecting the Times’ political support for Obama, the newspaper also fails to note that the current administration is well stocked at the highest levels with Goldman alumni and protégés of its former top executive Robert Rubin. These include, mentioning only two, the administrator of TARP funds, former Goldman Vice President Neil Kashkari, and Lawrence Summers, Obama’s top economic adviser. The article likewise fails to mention by name Geithner, a key organizer of the AIG bailout and current treasury secretary.
Paulson’s role in orchestrating the plundering of the Treasury to pay off the gambling debts of Goldman and, more generally, shield the financial aristocracy from the consequences of its speculative operations, is criminal in the full sense of the word. There is every basis for launching a criminal investigation, and aside from potential violations of law, the destructive social consequences for hundreds of millions of people in the US and around the world of his policies—which are being continued by Obama—are incalculable.
Paulson, however, is not an aberration. The multi-millionaire banker turned cabinet official is rather an embodiment of the domination of social and political life by a financial oligarchy, whose leading representatives partake in the revolving door between the corporate suite and the highest levels of the state. This Augean stable of reaction and corruption can be cleaned out only through the independent mobilization of the working class on the basis of a revolutionary socialist program.

JUST IMAGINE WHAT IS THE VALUE OF DEMOCARCY IN A SOCIETY WHERE FINANCIAL OLIGARCHY RULES THE ROOST!!

Based on the article by Barry Grey from w.s.w.s.

Monday, August 10, 2009

'जो कुछ बचा, मंहगाई मार गई'

गरीबों के मुंह से निवाला छीन लेने वाली मंहगाई ने आम लोगों का जीना मुश्किल कर दिया है। आख़िर क्यों बढ़ गई मंहगाई? कौन है इसके लिए जिम्मेवार? क्या congress party जिम्मेवार है? क्या BJP जिम्मेवार है? जनता सोच रही है अब किसे जिताया जाए? बीजेपी और कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, वाम दलों सहित सभी छोटी-बड़ी पार्टियों की सरकारों को देख लिया गया है। जहाँ तक आम मेहनतकश जनता और गरीब लोगों का सवाल है, उनमें रत्ती भर भी फर्क नहीं है। आज जब मंहगाई बढ़कर इतनी हो गई है कि खाते-पीते परिवारों के यहाँ से भी दाल और सब्जियां गायब होती जा रही हैं, तो पूंजीवादी पार्टियाँ भी मंहगाई पर चिंता जाहिर कर रही हैं। उन्हें डर है कि भूखी जनता सड़क पर न आ जाए, कहीं विधि -व्यवस्था न बिगड़ जाए और शासन पर जनता धावा न बोल दे! परंतु, जब वे स्वयं अपनी जाती हुई सत्ता को " झपटने" के लिए विधि-व्यवस्था बिगाड़ते हैं तो उन्हें इसकी कोई फिक्र नहीं होती है!! सवाल यह भी है कि जनता स्वयं क्या सोचती है।

Saturday, August 8, 2009

आत्मा और प्रकृति का प्रश्न

भाववाद और भौतिकवाद के ऐतिहासिक प्रस्तुतीकरण के लिए आत्मा और प्रकृति के प्रश्न पर विचार करना अति आवश्यक है। जहाँ तक आत्मा का सवाल है, हमें इस शब्द की व्युत्पति सम्बन्धी पचडों में पड़े बिना इसके व्यावहारिक-ऐतिहासिक अर्थ पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। आत्मा क्या है? धार्मिक दृष्टिकोण के अनुसार यह एक ऐसी विशिष्ट चीज है जो सभी जीवित जीवों में पायी जाती है और जो उनमें अलग से निवास करती है। माना जाता है मनुष्य की चिंतन क्रियायें और संवेदनाएं इसी जीवात्मा द्वारा की जाने वाली क्रियायें मानी जाती हैं। इस जीवात्मा का शरीर से अलग हो जाने का अर्थ मृत्यु होना माना जाता है। परन्तु, स्वयं आत्मा को अमर माना जाता है। आत्मा की कभी कोई मृत्यु नहीं होती है। सभी धर्मों में आत्मा के अमरत्व की कहानियों के पीछे भी यही, लगभग यही धारणा पायी जाती है। हमारे लिए इस पर विचार करना और यह समझना जरूरी है कि यह धारणा पैदा किस तरह हुई और भाववाद दर्शन में ऐसी अवधारणा का स्थान क्या है।
एंगेल्स लिखते हैं - " अतिप्राचीन काल से ही जब मनुष्य को स्वयं अपने शरीर की रचना के बारे में कोई जानकारी नहीं था, सपने में देखी प्रेत छायाओं के प्रभाव से यह विश्वास करने लगा था कि उसका चिंतन व उसकी संवेदना उसके शरीर कि क्रियायें नहीं, अपितु एक विशिष्ट जीवात्मा की क्रियायें हैं जो शरीर में निवास करती है और जो मृत्यु के समय शरीर का परित्याग कर देती है। और तभी से मनुष्य इस आत्मा और बाह्य जगत के साथ अपने सम्बन्ध पर विचार करने पर विवश होना पड़ा। .........................