आतंकी कारवाइयों से क्रांति नहीं हुआ करती है
दुनिया बदलने का काम आतंक से नहीं, जनक्रान्ति से
उकसाबेबाज़ नहीं, मार्क्सवादी-लेनिनवादी की तरह पेश आइये
झारखण्ड में अगवा किए गए पुलिस इंस्पेक्टर फ्रांसिस की गला काट कर नृशंस हत्या माओवादियों ने कर दी. उनकी यह करवाई सर्वथा निंदनीय है। क्रांति का मतलब एक दो पुलिसवालों की हत्या करना कदापि नहीं है। माओवादी पार्टी की क्रांति पुलिस वालों से बदला लेने की कारवाई में तब्दील होती जा रही है। सत्ता के द्वारा किए जा रहे दमन से जनता सत्ता के चरित्र को समझती है। फिर इस समझदारी को जनता की व्यापक और क्रन्तिकारी व तूफानी राजनितिक करवाई में बदलना और उसका नेतृत्व करना होता है जो किसी मोड़ पर आकर शासक वर्गों के ख़िलाफ़ युद्ध में परिणत कर जा सकता है। चूँकि इसमे शुरू से ही व्यापक आबादी के पक्ष के तरफ से होने वाली राजनीति जनांदोलन के केन्द्र में होती है, सेना और पुलिस वाले भी क्रांतिकारी आदोलन से प्रभावित होते रहते हैं। यह किसी भी जन क्रांति की जीत के लिए जरूरी है और यह दुनिया में हुई सभी तरह की - पूंजीवादी या साम्यवादी - क्रांतियों का इतिहास है। शायद यह पहली बार हो रहा है कि किसी क्रांति के नाम पर पुलिस वालों के खिलाफ बदले के भाव से हमला किया जा रहा है। यह न तो कार्यनीति के तौर पर और न ही नैतिक तौर पर ही ठीक है। माओवादी पार्टी के द्वारा जो किया जा रहा है वह सर्वहारा वर्गीय कम्युनिस्ट व्यवहार का नहीं, निम्न पूंजीवादी टूटपूंजिया और किसानी मानसिकता का परिचायक है।
व्यापक जनता को व्यापक और भव्य कम्युनिस्ट लक्ष्यों के पक्ष में राजनीतिक रूप से सक्रिय करते हुए राजसत्ता के दमन का प्रतिरोध करने के बजाय एक दो पुलिसवालों की पाशविक ह्त्या करना और इसे ही अपनी संतुष्टि का साधन बना लेना क्रांति और मार्क्सवाद-लेनिनवाद की प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ करने के बराबर है। नागरिक अधिकारों के हनन का प्रतिरोध होना ही चाहिए। जल-जंगल-जमीन से आदिवासियों की बेदखली , कॉरपोरेट घरानों को जल-जंगल सौंपें जाने के खिलाफ बेशक विरोध होना चाहिए। लेकिन दूसरी तरफ इसके विरोध के नाम पर किसी पुलिस वाले को पकड़ लेने के वाद गर्दन काटने को कत्तई जायज नहीं ठहराया जा सकता। सच तो यह है कि माओवाद के नाम पर जिस चीज को अमल में लाया जा रहा है, वह माओवाद है भी या नहीं, विवाद इस पर भी है। इसे कुछ लोग वामपंथी आतंकवाद कहते हैं, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह निराशा और हताशा से पैदा हुए मध्यवर्गीय दुस्साहसवाद के अलावा और कुछ नहीं है। यही चीज़ इन्हें जनता को राजनीतिक तौर से जागरूक और गोलबंद करने के दीर्घकालिक कठिन कार्य की जगह क्रान्ति का शोर्टकट रास्ता अपनाने के लिए उकसाता है। इस वजह से आसानी से एक बड़ा हमला करने और क्रांतिकारियों को नेस्तनाबूद करने का मौका सत्ताधारियों और उसके हिमायतियों को मिल जा सकता है। स्पष्ट जनपक्षीय राजनीतिक मुद्दों के अभाव में माओवादियों की कारवाई आम जनता के अन्दर भी एक तरह की वितृष्णा पैदा कर रही है जिस से सत्ताधारियों को हमला करने में और भी आसानी हो जा रही है।
उकसाबेबाजी से बाज़ आइये और जनता को राजनीति में सक्रिय करने के काम को हाथ में लीजिये ! और हो सके तो संसदीय चुनावों में लेनिनवादी ढंग से भाग लेते हुए धैर्यपूर्वक क्रांतिकारी परिस्थिति का निर्माण करिये !!