नया वर्ष हमारे सभी साथियों के लिए मंगलमय हो !
नए वर्ष में न्यायपूर्ण उद्देश्यों की जीत हो!!
पूंजी की दासता और गुलामी का एक और वर्ष बीत गया ! आइये, नए वर्ष में न्याय की जीत हो और गुलामी का खात्मा हो, हम सभी इस बात की कामना और कोशिश करें !!
"जब सर्वहारा विजयी होता है, तो वह समाज का कदाचित निरपेक्ष पहलू नहीं बनता है, क्योंकि वह केवल अपना और अपने विरोधी का उन्मूलन करके ही विजयी होता है. तब सर्वहारा लुप्त हो जाता है और साथ ही उसके विरोधी का, स्वयं निजी सम्पति का भी, जो उसे जन्म देती है, लोप हो जाता है.."
ये आंकड़े क्या कहते हैं ?
१) भारत के लगभग आधे बच्चे कुपोषण के शिकार हैं!
२) दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों में एक तिहाई संख्या भारतीय बच्चों की है।
३) देश में हर तीन सेकंड में एक बच्चे की मौत हो जाती है।
४) देश में प्रतिदिन लगभग 10,000 बच्चों की मौत होती है, इसमें लगभग 3000 मौतें कुपोषण के कारण होती हैं।
५) सिर्फ अतिसार के कारण ही प्रतिदिन 1000 बच्चें की मौत हो जाती है।
६) भारत के पाँच वर्ष से कम उम्र के 38 फीसदी बच्चों की लम्बाई सामान्य से बहुत कम है।
७) 15 फीसदी बच्चे अपनी लम्बाई के लिहाज से बहुत दुबले हैं।
८) 43 फीसदी (लगभग आधे) बच्चों का वजन सामान्य से बहुत कम है।
९) हर 1000 में से 57 बच्चे पैदा होते ही मर जाते हैं।
१०) भारत में प्रति वर्ष 74 लाख कम वजन वाले बच्चे पैदा होते हैं - जो कि दुनिया में सबसे अधिक है।
११) विश्व भर में 97 लाख बच्चे पाँच साल की उम्र पूरी करने से पहले ही मर जाते हैं, इनमें 21 लाख (यानी लगभग 21 प्रतिशत) बच्चे भारत के हैं।
१२) हर 4 में से 1 लड़की और हर 10 में से 1 लड़का प्राथमिक शिक्षा से वंचित है।
१३) गर्भ या प्रसव के दौरान आधी महिलाओं को उचित देख-भाल नहीं मिलती।
१४) देश की 50 प्रतिशत महिलाओं और 80 प्रतिशत बच्चों में खून की कमी है।
१५) देश का हर चौथा आदमी भूखे पेट रहता है। दुनिया भर में भूखे रहने वालों का एक तिहाई हिस्सा भारत में रहता है।
१६) पिछले 4-5 सालों में अधिकतर खाद्य पदार्थों की कीमतों में 50 से 100 प्रतिशत का इजाफा हो चुका है।
१७) 77 प्रतिशत भारतीय 20 रुपये रोज से कम पर गुजारा करते हैं।
१८) देश की केन्द्र सरकार अपने खर्च का महज 2 प्रतिशत स्वास्थ्य पर और 2 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करती है। इसकी तुलना में सुरक्षा पर 15 प्रतिशत खर्च किया जाता है।
१९) संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून के अनुसार दुनिया में अब लगभग 1 अरब से अधिक लोग भुखमरी का शिकार हैं।
क्या ऐसे समाज की कल्पना हमने की थी?
आइये अपने सपने की समाज व्यवस्था बनाने के लिए कुछ करें ........
२२ नवम्बर २००९ को "रूसी नवम्बर क्रांति का महत्व और उसके सबक" विषय
पर हुए कन्वेंशन के कुछ दृष्य
"दैनिक जागरण" (२३ नवम्बर २००९) में प्रकाशित ख़बर
हौल में बैठे हुए कामरेड और दूसरे संगठनों के अतिथि लोग
इफ्टू के कामरेड सुनील पाल बोलते हुए
लुधियाना के प्रवासी मजदूरों (ज्यादातर बिहार और उत्तरप्रदेश के) के न्यायपूर्ण आन्दोलन के पक्ष में पटना में साझा मार्च और नुक्कड़ सभा हुई
पटना में गत 8दिसम्बर 2009 के दिन जन अभियान के बैनर तले बिहार में कार्यरत दर्ज़न भर जनवादी, प्रगतिशील व क्रांतिकारी संगठनों के तरफ से एक साझा मार्च रेडियो स्टेशन से पटना स्टेशन गोलंबर तक निकाला गया। इसमे जन अभियान के घटक संगठनों के अलावे भाग लेने वाले व्यक्तियों में थे - सर्वहारा जन मोर्चा के अजय कुमार सिन्हा और श्रम मुक्ति संगठन के जय प्रकाश तथा पटना विश्व विद्यालय के अर्थ शास्त्र विभाग के प्रोफेसर श्री नवल किशोर चौधरी आदि भी शामिल थे। सभी वक्ताओं ने एक स्वर में लुधियान लुधियाना के प्रवासी मजदूरों (ज्यादातर बिहार और उत्तरप्रदेश के) के न्यायपूर्ण आन्दोलन के पक्ष में खड़े होने का आह्वान किया। यह बात भी जोर-शोर के साथ उठाई गई कि किसी को भी देश के किसी भी कोने में जाकर अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ करने का अधिकार है। यह भी कहा गया कि स्वयं पूंजीवादी व्यवस्था मजदूरों की बर्बादी और उनके पलायन के लिए जिम्मेवार है और उसी ने क्षेत्रवाद और का जहर भी फैला रखा है। पूंजीवादी गुर्गे और पार्टियां जानबूझ कर प्रवासी और गैर प्रवासी के बीच भेद पैदा कर के पूंजीपतियों के लिए सुअवसर पैदा करते हैं। सभी वक्ताओं ने लुधियाना के मजदूरों के साथ एकजुटता का प्रदर्शन करते हुए पूंजीवादी और जुल्मी व्यवस्था को पलटने और एक नई शोषणमुक्त व्यवस्था बनाने का आह्वान किया।
लगातार घोर शोषण और लूट को झेलते बिहार व उत्तर प्रदेश के मजदूरों का गुस्सा फूट पड़ा
पुलिस और मालिकों के गुंडों की खुली मिलीभगत
ये फोटो बता रहे हैं कि पंजाब पुलिस, स्थानीय गुंडों और फैक्ट्री मालिकों के जरखरीद लम्पटों की खुली मिलीभगत है। मजदूरों के लिए जरूरी है कि वे इस बात से सबक लें और फौरी तौर पर अपने को वहां संगठित करें जहाँ वे श्रम अर्थात काम करते हैं। यह तो असंभव है कि अब से वे बाहर जायेंगे ही नहीं, कारण यह कि जब तक यह पूंजीवादी व्यवस्था है, तब तक न तो रोजी-रोटी के लिए उनका बाहर जाना बंद हो सकता है और न ही रोज-रोज उनका उजड़ना ही बंद हो सकता है। जहाँ तक नितीश कुमार का प्रश्न है, वे जरूर आने वाले बिहार चुनाव का ख्याल रखते हुए पंजाब में मजदूरों की पिटाई के खिलाफ बोल रहे हैं, परंतु वे स्वयं एक पूंजीवादी शासक ही हैं। क्या उनके बिहार में पुलिस मजदूरों के साथ घिनौना व्यवहार नहीं करती है? क्या नितीश कुमार की यानी बिहार की पुलिस आंदोलनरत मजदूरों व आम लोगों के साथ वैसा ही व्यवहार नहीं करती है जैसा कि पंजाब पुलिस कर रही है ? पूंजीवादी व्यवस्था में पुलिस का यही रवैया हर जगह है। मजदूर-गरीब और मेहनतकश जनता को एकमात्र अपनी एकता और अपने संगठन की ताकत पर ही भरोसा करनी चाहिए। मजदूर वर्ग की एकता ही उनकी एकमात्र ताकत है।
"आज के सन्दर्भ में रूसी नवम्बर समाजवादी क्रांति का महत्त्व" के सवाल पर कन्वेंशन (सम्मलेन)
२२ नवम्बर २००९ (दिन रविवार): पटना गाँधी संग्रहालय ११ बजे दिन से शाम पाँच बजे तक
आज भारत ही नहीं पूरी दुनिया में आम लोगों के जीवन में भयंकर तबाही मची हुई है। एक बहुत बड़ी आबादी को दो जून की रोटी भी मयस्सर नहीं हो पा रही है। विश्व की लगभग तीन चौथाई आबादी बेकार, भूखे, नंगें और कुपोषित लोगों की फौज में तब्दील हो गई है। ................................
मुंबई के ५ हवाई अड्डों को रिलायंस के मालिक अनिल अम्बानी को कौड़ी के भाव पर सौंपे जाने के खिलाफ आवाज़ उठायें !!
आसमान छूती महंगाई और बेकारी से पहले ही परेशान और घायल जनता के घावों पर सरकार द्वारा नमक छिड़का गया !!!
मुंबई के पाँच हवाई अड्डों को केन्द्रीय सरकार ने रिलायंस के मालिक अनिल अम्बानी को मात्र ६३ करोड़ रूपयों में ९५ सालों के लिए दे दिए है। सरकार के ही कई विभागों जैसे कि राजस्व विभाग ने इस पर आप्पत्ति जाहिर की हैं। राजस्व विभाग ने कहा है कि सरकारी सम्पति को तीस सालों से अधिक समय के लिए लीज पर दिया ही नहीं जा सकता है। दूसरी तरफ एक दूसरे विभाग ने कहा है कि यह बहुत बड़े घाटे का सौदा है। सरकार कह रही है कि क्योंकि ये हवाई अड्डे काम नहीं कर रहे थे इसलिए इन्हें लीज पर दे दिया गया, जब कि सरकार ने हाल में ही इन हवाई अड्डों पर करोडों रूपये खर्च किए हैं। जाहिर है जनता द्वारा चुनी हुई सरकार जनता की संपत्ति को पूंजीपतियों को सौंपने पर आमदा है। क्या हमें यह मंज़ूर है? क्या हमें इसे मंज़ूर करना चाहिए? अगर नहीं तो आइए मिलजुल कर इसके खिलाफ आवाज़ बुलंद करें और इस पर विचार करें कि जनता द्वारा चुनी यह सरकार आम जनता की है या मुठ्ठी भर धन कुबेरों की है। आसमान छूती महंगाई और बेकारी से पहले ही परेशान जनता के घावों पर नमक छिड़कने वाली सरकार को हमें माफ नहीं करना चाहिए।
मराठी और गैर-मराठी मजदूर और मेहनतकश
महाराष्ट्रा के चुनावों में राज ठाकरे और उसकी पार्टी को सबक जरूर सिखायेंगे !!!!!
चुनावों आते ही राज ठाकरे की बेशर्मी और अवसरवादिता उजागर हो गई है। नाशिक में गैर मराठी मजदूरों और कामगारों की अच्छी-खासी संख्या है। उनका वोट लेने के लिए राज ठाकरे हर तरह के हथकंडे अपना रहा है। राज ठाकरे उन्हें अपना वोटर बता उन पर आज अपना प्यार बर्षा रहा है !!! नाशिक वही शहर है जहाँ राज ठाकरे के गुंडों ने बाहरी लोगों पर सबसे ज्यादा जुल्म ढाए थे। क्या हम यह भूल जायेंगे? हम कभी यह भी नही भूल पाएंगे कि किस तरह कांग्रेस और अन्य पार्टियों ने इस पर चुप रहना बेहतर समझा था और राज ठाकरे का मन बढ़ाने का काम किया था।
राज ठाकरे की मनसे और उद्धव और बाल ठाकरे की शिवसेना मराठी मानुष की बात करती है। क्या वास्तव में ये लोग मराठी मानुष का भला चाहते हैं? सच तो यही है कि मनसे और शिवसेना दोनों पूंजीपतियों के लिए सस्ते श्रमिक मुहैय्या कराने वाले संगठन हैं। मुंबई में जब कपड़ा मिल बंद हो रहे थे और २४ लाख मजदूर नौकरी से बाहर हो गए थे तो इनमे से अधिकांश मराठी मजदूर ही थे। शिवसेना और मनसे तथा सम्पूर्ण ठाकरे परिवार ने तब मिल मालिकों को कारखाने बंद करने में पूरी सहायता की थी न कि मजदूरों का साथ दिया था। कौन भूलेगा कि तब ये लोग मजदूरों की हड़तालें तोड़ने का काम करते थे। कौन भूलेगा कि मजदूरों का साथ देने की तो बात ही दूर, इन लोगों ने बहादूर और लोकप्रिय मराठी मजदूर नेता कृष्णा देसाई और दत्ता सामंत को अपने गुंडों से हत्या करवा दिया था। ये लोग पूंजीपतियों के मन माफिक संगठित मराठी या बाहरी मजदूरों को हटवा कर सस्ते असंगठित मराठी और बंगलादेशी मजदूर रखवाते थे। इस तरह इन लोगों ने मालिकों के मुनाफे को खूब बढाया जिसका एक हिस्सा इन्हें भी मिला। इतना ही नही, जब जरूरत ख़त्म हो जाती तो फिर हिंदू-मुस्लिम और बाहरी-भीतरी का लफड़ा उठाकर ये लोग इन्हें भी मार भगा देते।
यही और ऐसा ही इनका सच्चा इतिहास है और मजदूर वर्ग को इस चुनाव में मनसे और शिवसेना को अवश्य ही सबक सिखाना चाहिए।
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महंगाई के मारे लोगों को दिल्ली में बस के भाड़े
में डेढ़ गुनी वृद्धि की सौगात देने का फैसला !!
दिल्ली सरकार ने दीपावली के बाद दिल्ली में बस भाड़े में वृद्धि की तैयारी कर ली है। बस में सफर करने वाले कौन हैं यह सबको पता है। अगर बस भाड़े में डेढ़ गुनी वृद्धि हो जाती है तो बसों में सफर करने वाले गरीबों का क्या होगा इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसा लगता है कि सरकार पूरी तरह अंधी और पत्थरदिल हो गई है और पूरी तरह पगला गई है। शायद वह वक्त नजदीक आ रहा है जब आम लोगों के सब्र का बाँध टूटेगा और जुल्म, अन्याय और शोषण पर टिकी इस व्यवस्था की चूलें हिलेंगी। हम सबका यह फ़र्ज़ बनता है कि बस भाड़े में होने वाली अप्रत्याशित वृद्धि का विरोध करें। आइये इसका विरोध करने के लिए हम सब एकजुट हों।
पिछले विधानसभा चुनाव में बहुमत हासिल कर दोबारा सत्ता पर काबिज होने वाले मध्य प्रदेश के भाजपाई मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान और उनके प्रदेश की झोली में कुछ और तमगे आ गिरे हैं। एक गैर सरकारी संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक इस वर्ष मई के महीने के बाद से मध्य प्रदेश के कम से कम चार जिलों में छह वर्ष से कम उम्र के 450 बच्चों की कुपोषण से मौत हो गई है। राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण-तीन की रिपोर्ट के अनुसार म.प्र. में कुपोषण 54 प्रतिशत से बढ़कर 60 प्रतिशत हो गया है जिसका मतलब यह है कि मप्र के बच्चे भारत के सबसे कुपोषित बच्चे बन गए हैं। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। शिशु मृत्यु दर के मामले मे भी मध्य प्रदेश भारत का अव्वल राज्य है जहाँ ज़िन्दा पैदा होने वाले हर 1000 बच्चों में से 72 की पैदा होते ही मौत हो जाती है (नमूना पंजीकरण सर्वेक्षण 2007-08)। यह गौरव हासिल करने वाला म.प्र. अकेला राज्य नहीं है! राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली उसे कड़ी टक्कर दे रही है। वैसे तो पूरे देश के स्तर पर ''अतुलनीय भारत'' की यही दशा है। स्थिति कितनी भयावह है इसे स्पष्ट करने के लिए चन्द एक ऑंकड़े ही पर्याप्त होंगे। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत के पाँच वर्ष से कम उम्र के 38 फीसदी बच्चों की लम्बाई सामान्य से बहुत कम है, 15 फीसदी बच्चे अपनी लम्बाई के लिहाज से बहुत दुबले हैं, और 43 फीसदी (लगभग आधे) बच्चों का वजन सामान्य से बहुत कम है। पर्यावरणविद डा. वन्दना शिवा द्वारा हाल ही में जारी एक रिपोर्ट से पता चलता है कि आज देश के हर चौथे आदमी को भरपेट भोजन मयस्सर नहीं हो पा रहा है। कुछ ही साल पहले जारी अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक लगभग 77 प्रतिशत भारतीय 20 रुपया रोज से कम गुजारा करते हैं। उसके बाद से महँगाई जिस रफ्तार से बढ़ी है उसे देखते हुए सहज ही अन्दाजा लगा जा सकता है कि आज की स्थिति और भी भयानक हो चुकी होगी। एक तरफ सरकार मुद्रास्फीति की दर के ऋणात्मक हो जाने की बात कर रही है वहीं दूसरी तरफ पिछले 4-5 सालों में अधिकतर खाद्य पदार्थों की कीमतों में 50 से 100 प्रतिशत का इजाफा हो चुका है। जैसे-जैसे खेती में कारपोरेट सेक्टर की पैठ बढ़ती जा रही है और लोगों की आश्यकताओं के अनुरूप नहीं बल्कि बाज़ार को ध्यान में रखकर खेती करने का चलन बढ़ रहा है, वैसे-वैसे बुनियादी खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ती जा रही हैं और खाद्य असुरक्षा की स्थिति पैदा हो गयी है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि देश में अन्न की कमी है। अनियंत्रित, अवैज्ञानिक ढंग से खेती करने, किसानों को सरकारी मदद के कमोबेश पूर्ण अभाव और खेती को जुआ बना देने की तमाम कोशिशों के बावजूद विशेषज्ञों का मानना है कि हजारों टन अनाज गोदामों में पड़ा सड़ जाता है और चूहों द्वारा हज़म कर लिया जाता है। इसके अलावा बड़े पैमाने पर अनाज अवैध तरीकों से विदेशों में बेचा जाता है। एक तरफ खेती योग्य जमीन का दूसरे कामों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है तो दूसरी तरफ अन्न उगाने के बजाय किसानों को नगदी फसलें उगाने का प्रलोभन भी दिया जा रहा है। देश का एक बहुत बड़ा भूभाग पहले से ही सूखे से जूझ रहा था वहीं इस साल मानसून कम होने के कारण अन्न उत्पादन और भी कम होने की आशंका है। हमारी सुजलाम सुफलाम शस्य श्यामलम धरती अंग्रेज़ शासकों द्वारा निर्मित अकालों के बाद अब देशी हुक्मरानों द्वारा निर्मित अकाल जैसी स्थिति का सामना कर रही है। आज दुनिया में सबसे ज्यादा भूखे लोग भारत में रहते हैं। देश में लगभग साढ़े इक्कीस करोड़ लोगों को भरपेट भोजन नसीब नहीं हो रहा है। इसके अलावा नीचे की एक भारी आबादी ऐसी है जिसका पेट तो किसी न किसी प्रकार भर जाता है मगर उनके भोजन से पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता। यही वह आबादी है जो फैक्टरियों-कारखानों और खेतों में सबसे खराब परिस्थितियों में सबसे मेहनत वाले काम करती है और झुग्गी-बस्तियों में और कूड़े के ढेर और सड़कों-नालों के किनारे जिन्दगी बसर करती है। कहने की जरूरत नहीं कि भूख, कुपोषण, संक्रामक रोगों, अन्य बीमारियों और काम की अमानवीय स्थितियों के कारण और साथ ही दवा-इलाज के अभाव के कारण इस वर्ग के अधिकतर लोग समय से ही पहले ही दम तोड़ देते हैं। पर्याप्त पोषण की कमी के कारण भारत के लगभग 6 करोड़ बच्चों का वज़न सामान्य से कम है। सुनकर सदमा लग सकता है कि अफ्रीका के कई पिछड़े देशों की हालत भी यहाँ से बेहतर है! दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों की एक तिहाई संख्या भारतीय बच्चों की है। देश की 50 प्रतिशत महिलाओं और 80 प्रतिशत बच्चों में खून की कमी है। डा. वन्दना शिवा का कहना है कि आर्थिक सुधारों ने खाद्य सुरक्षा को अत्यधिक प्रभावित किया है। कारपोरेट खिलाड़ियों के प्रभाव वाली गैर वहनीय कृषि को सरकार बढ़ावा दे रही है जबकि इससे छोटे किसान तबाह हो रहे हैं। उनका कहना हे कि छोटे किसान बड़े-बड़े फार्मों की अपेक्षा अधिक अन्न की पैदावार करते हैं और यदि वे तबाह होते हैं तो वे भुखमरी की कगार पर आ जाएंगे और देश भी भूखा रहेगा। गाँवों में रहने वाली देश की भारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज तबाही की कगार पर खड़ा है। पूँजी के तर्क से समझा जा सकता है कि पूँजीवाद में छोटे किसानों की तबाही अनिवार्य है। उदारीकरण की नीतियों ने इसमें और तेजी ला दी है। वहीं दूसरी तरफ यह भी सच है कि खेती के सहारे गरीब किसान अपना निर्वाह नहीं कर सकता। जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों पर खेती करने वालों की संख्या करोड़ों में है जो कहने को जमीन के मालिक हैं लेकिन खेती से उनके परिवार का पेट तक नहीं भरता। छोटे-छोटे टुकड़ों के अलग-अलग मालिकों की संपत्ति होने के कारण योजनाबद्ध ढंग से कृषि कर पाना, सिंचाई, खाद, कीटनाशक आदि की व्यवस्था कर पाना और मशीनों का प्रयोग तथा वैज्ञानिक खेती कर पाना सम्भव नहीं रह जाता। हर किसान अपनी खेती के लिए स्वयं जिम्मेदार होता है और वह किसी समूह का अंग नहीं रह जाता। एक तरफ तो वह सरकार से कोई मदद प्राप्त नहीं कर पाता है, वहीं दूसरी तरफ प्राइवेट कम्पनियों के शोषण का शिकार होता है। खेती उसके लिए गले की हड्डी बन जाती है जिसे न तो वह निगल पाता है न उगल पाता है। इसकी तुलना समाजवादी रूस और चीन की सामूहिक और कम्यून खेती से करें तो आश्चर्यजनक अन्तर दिखायी पड़ता है। सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि विश्व स्तर पर हम एक मानव निर्मित अकाल की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं! हर गुजरते दिन के साथ स्थिति और गम्भीर होती जा रही है। देश की तरक्की की सारी मलाई अमीरों द्वारा चट कर ली जा रही है जबकि उत्पादन में सबसे अधिक योगदान करने वाली तीन-चौथाई मेहनतकश आबादी भूख, कुपोषण, और बीमारियों की शिकार बन रही है। ऐसे में जर्मन कवि बेर्टोल्ट ब्रेष्ट के इन शब्दों को याद करने की ज़रूरत है
गर थाली आपकी खाली है तो सोचना होगा कि खाना कैसे खाओगे ये आप पर है कि पलट दो सरकार को उल्टा जब तक कि खाली पेट नहीं भरता...
जयपुष्प
( "बिगुल" से साभार)